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06 अगस्त 2012

झंडा ऊँचा रहे हमारा


भारत के झंडा गीत की रचना श्री श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' ने की थी । ७ पद वाले इस मूल गीत से बाद में कांग्रेस नें तीन पद (पद संख्या १, ६ व ७) को संशोधित करके ‘झण्डागीत’ के रूप में मान्यता दी। यह गीत न केवल राष्ट्रीय गीत घोषित हुआ बल्कि अनेक नौजवानों और नवयुवतियों के लिये देश पर मर मिटने हेतु प्रेरणा का स्रोत भी बना।

मूल रूप में लिखा झण्डागीत इस प्रकार है:-

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला
वीरों को हरसाने वाला
प्रेम-सुधा सरसाने वाला
मातृभूमि का तन-मन सारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा ।१।
लाल रंग बजरंगबली का
हरा अहल इस्लाम अली का
श्वेत सभी धर्मों का टीका
एक हुआ रंग न्यारा-न्यारा, झण्डा उँचा रहे हमारा ।२।
है चरखे का चित्र संवारा
मानो चक्र सुदर्शन प्यारा
हरे रंग का संकट सारा
है यह सच्चा भाव हमारा, झण्डा उँचा रहे हमारा ।३।
स्वतंत्रता के भीषण रण में
लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में
कांपे शत्रु देखकर मन में
मिट जाये भय संकट सारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा ।४।
इस झण्डे के नीचे निर्भय
लें स्वराज्य का अविचल निश्चय
बोलो भारत माता की जय
स्वतंत्रता है ध्येय हमारा, झण्डा उँचा रहे हमारा ।५।
आओ प्यारे वीरो आओ
देश-धर्म पर बलि-बलि जाओ
एक साथ सब मिल कर गाओ
प्यारा भारत देश हमारा, झण्डा उँचा रहे हमारा ।६।
शान न इसकी जाने पाये
चाहे जान भले ही जाये
विश्व विजय कर के दिखलायें
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा, झण्डा उँचा रहे हमारा ।७।


झंडा गीत और उस का इतिहास

"विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा" नामक उक्त सुविख्यात झंडा गीत को 1938 के कांग्रेस अधिवेशन में स्वीकार किया गया था। इस गीत की रचना करने वाले श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' कानपुर में नरवल के रहने वाले थे। उनका जन्म 16 सितंबर 1893 में वैश्य परिवार में हुआ था। गरीबी में भी उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की थी। उनमें देशभक्ति का अटूट जज्बा था, जिसे वह प्रायः अपनी ओजस्वी राष्ट्रीय कविताओं में व्यक्त करते थे। कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता रहने के बाद वह 1923 में फतेहपुर के जिला कांग्रेस अध्यक्ष भी बने। वह 'सचिव' नाम का एक अखबार भी निकालते थे। जब यह लगभग तय हो गया था कि अब आजादी मिलने ही वाली है, उस वक्त कांग्रेस ने देश के झंडे का चयन कर लिया था। लेकिन एक अलग “झंडा गीत” की जरूरत महसूस की जा रही थी। गणेश शंकर 'विद्यार्थी', पार्षद जी के काव्य-कौशल के कायल थे। विद्यार्थी जी ने पार्षद जी से झंडा गीत लिखने का अनुरोध किया। पार्षद जी कई दिनों तक कोशिश करते रहे, पर वह संतोषजनक झंडा गीत नहीं लिख पाए। जब विद्यार्थीजी ने पार्षदजी से साफ-साफ कह दिया कि उन्हें हर हाल में कल सुबह तक "झंडा गीत" चाहिए, तो वह रात में कागज-कलम लेकर जम गए।

आधी रात तक उन्होंने झंडे पर एक नया गीत तो लिख डाला , लेकिन वह खुद उन्हें जमा नहीं। निराश हो कर रात दो बजे जब वह सोने के लिए लेटे, अचानक उनके भीतर नए भाव उमड़ने लगे। वह बिस्तर से उठ कर नया गीत लिखने बैठ गए। पार्षद जी को लगा जैसे उनकी कलम अपने आप चल रही हो और 'भारत माता' उन से वह गीत लिखा रही हों। यह गीत था-"विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।" गीत लिख कर उन्हें बहुत संतोष मिला।

सुबह होते ही पार्षद जी ने यह गीत 'विद्यार्थी' जी को भेज दिया, जो उन्हें बहुत पसंद आया। जब यह गीत महात्मा गांधी के पास गया, तो उन्होंने गीत को छोटा करने की सलाह दी । आखिर में, 1938 में कांग्रेस के अधिवेशन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इसे देश के "झंडा गीत" की स्वीकृति दे दी। यह ऐतिहासिक हरिपुरा अधिवेशन था। नेताजी ने झंडारोहण किया और वहां मौजूद करीब पांच हजार लोगों ने श्यामलाल गुप्त पार्षद के रचे झंडा गीत को एक सुर में गाया।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में राजस्थान


कोटा के शहीद लाल जयदयाल
रचनाकार : कन्हैया लाल जी

ब्रितानियों को भारत से बाहर निकालने के लिए युगाब्द 4659 (सन् 1857) में हुआ स्वतंत्रता का युद्ध भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। देखा जाए तो स्वतंत्रता के संघर्ष की शुरुआत महाराणा हम्मीर सिंह ने की थी। वीरों में वीरोत्तम महाराणा हम्मीर ने मुस्लिम आक्रमणकारियों का बढ़ाव काफ़ी समय तक रोके रखा। वस्तुतः सिसोदिया वंश का पूरा इतिहास ही भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष का इतिहास है। लेकिन ब्रितानियों के ख़िलाफ़ पूरे भारत में एक साथ और योजनाबद्ध युद्ध सन् 1857 में लड़ा गया, इसीलिए इतिहासकारों ने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया।

क्रांति के इस महायज्ञ को धधकाने की योजना अजीमुल्ला खाँ तथा रंगोबापूजी ने लंदन में बनाई थी। योजना बनाकर ये दोनों उत्कट राष्ट्र-भक्त पेशवा के पास आए और उन्हें इस अद्भुत समर का नेतृत्व करने को कहा। सैनिक अभियान के नायक के रूप में तात्या टोपे को तय किया गया। संघर्ष के लिए संगठन खड़ा करने तथा जन-जागरण का काम पूरे दो साल तक किया गया।

मौलवी, पंडित और संन्यासी पूरे देश में क्रांति का संदेश देते हुए घूमने लगे। नाना साहब तीर्थ-यात्रा के बहाने देशी रजवाड़ों में घूमकर उनका मन टटोलने लगे। आल्हा के बोल, नाटक मंडलियाँ और कठपुतलियों के खेल के द्वारा स्वधर्म और स्वराज्य का संदेश जन-जन में पहुँचाया जाने लगा। क्रांति का प्रतीक लाल रंग का कमल सैनिक छावनियों में एक से दूसरे गाँव में घूमते पूरे देश की यात्रा करने लगा। इतनी ज़बरदस्त तैयारी के बाद संघर्ष की रूप-रेखा बनी। यह सब काम इतनी सावधानी से हुआ कि धूर्त ब्रितानियों को भी इसका पता तोप का पहला गोला चलने के बाद ही लगा।

राजस्थान में पहली चिंगारी
इस अपूर्व क्रांति-यज्ञ में राजसत्ता के सपूतों ने भी अपनी समिधा अर्पित की। देश के अन्य केंद्रों की तरह राजस्थान में भी सैनिक छावनियों से ही स्वतंत्रता-संग्राम की शुरुआत हुई। उस समय ब्रितानियों ने राजपूताने में 6 सैनिक छावनियाँ बना रखी थी। सबसे प्रमुख छावनी थी नसीराबाद की। अन्य छावनियाँ थी- नीमच, ब्यावर, देवली (टोंक), एरिनपुरा (जोधपुर) तथा खैरवाड़ा (उदयपुर से 100 कि.मी. दूर)। इन्हीं छावनियों की सहायता से ब्रितानियों ने राजपूताना के लगभग सभी राजाओं को अपने वश में कर रखा था। दो-चार राजघरानों के अतिरिक्त सभी राजवंश ब्रितानियों से संधि कर चुके थे और उनकी जी हजूरीमें ही अपनी शान समझते थे। इन छावनियों में भारतीय सैनिक पर्याप्त संख्या में थे तथा रक्त कमल और रोटी का संदेश उनके पास आ चुका था।

राजपूताने (राजस्थान) में क्रांति का विस्फोट 28 मई 1857 को हुआ। राजस्थान के इतिहास में यह तिथि स्वर्णाक्षरों में लिखी जानी चाहिए तथा हर साल इस दिन उत्सव मनाया जाना चाहिए। इसी दिन दोपहर दो बजे नसीराबाद में तोप का एक गोला दाग़ कर क्रांतिकारियों ने युद्ध का डंका बजा दिया। संपूर्ण देश में क्रांति की अग्नि प्रज्जवलित करने के लिए 31 मई, रविवार का दिन तय किया गया था, किंतु मेरठ में 10 मई को ही स्वातंत्र्य समर का शंख बज गया। दिल्ली में क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों के ख़िलाफ़ शस्त्र उठा लिए। ये समाचार नसीराबाद की छावनी में भी पहुँचे तो यहाँ के क्रांति वीर भी ग़ुलामी का कलंक धोने के लिए उठ खड़े हुए। नसीराबाद में मौजूद '15 वीं नेटिव इन्फेन्ट्री' के जवानों ने अन्य भारतीय सिपाहियों को साथ लेकर तोपख़ाने पर कब्जा कर लिया। इनका नेतृत्व बख्तावर सिंह नाम के जवान कर रहे थे। वहाँ मौजूद अँग्रेज़ सैन्य अधिकारियों ने अश्वारोही सेना तथा लाइट इन्फेन्ट्री को स्वतंत्रता सैनिकों पर हमला करने का आदेश दिया। आदेश माने के स्थान पर दोनों टुकड़ियों के जवानों ने अँग्रेज़ अधिकारियों पर ही बंदूक तान दी। कर्नल न्यूबरी तथा मेजर स्पाटवुड को वहीं ढेर कर दिया गया। लेफ्टिनेण्ट लॉक तथा कप्तान हार्डी बुरी तरह घायल हुए।

छावनी का कमांडर ब्रिगेडियर फेनविक वहाँ से भाग छूटा और उसने ब्यावर में जाकर शरण ली. नसीराबाद छावनी में अब भारतीय सैनिक ही बचे। वे सबके सब स्वातंत्र्य सैनिकों के साथ हो गए। छावनी को तहस-नहस कर स्वातंत्र्य सैनिकों ने दिल्ली की ओर कूच किया।

कमांडर गुरेस राम
नसीराबाद के स्वतंत्रता संग्राम का समाचार तुरंत-फुरत नीमच पहुँच गया। 3 जून की रात नसीराबाद से तीन सौ कि. मी. की दूरी पर स्थित नीमच सैनिक छावनी में भी भारतीय सैनिको ने शस्त्र उठा लिए। रात 11 बजे 7वीं नेटिव इन्फेण्ट्री के जवानों ने तोप से दो गोले दागे। यह स्वातंत्र्य सैनिकों के लिए संघर्ष शुरू करने का संकेत था। गोलों की आवाज़ आते ही छावनी को घेर लिया गया तथा आग लगा दी गई। नीमच क़िले की रक्षा के लिए तैनात सैनिक टुकड़ी भी स्वातंत्र्य-सैनिकों के साथ हो गई। अँग्रेज़ सैनिक अधिकारियों ने भागने में ही अपनी कुशल समझी। सरकारी ख़ज़ाने पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया।

आक्रमणकारी फ़िरंगियों के विरुद्ध सामान्य जनता तथा भारतीय सैनिकों में काफ़ी ग़ुस्सा था। इसके बावजूद क्रांतिकारियों ने हिंदू-संस्कृति की परंपरा निभाते हुए न तो व्यर्थ हत्याकांड किए, नहीं अँग्रेज़ महिलाओं व बच्चों को परेशान किया। नसीराबाद से भागे अँग्रेज़ सैनिक अधिकारियों के परिवारों को सुरक्षित रूप से ब्यावर पहुँचाने में भारतीय सैनिकों व जनता ने पूरी सहायता की। इस तरह नीमच से निकले अंग्रेज महिलाओं व बच्चों को डूंगला गाँव के एक किसान रूंगाराम ने शरण प्रदान की और उनके भोजन आदि की व्यवस्था की। ऐसे ही भागे दो अँग्रेज़ डाक्टरों को केसून्दा गाँव के लोगों ने शरण दी। इसके उलट जब स्वातंत्र्य सैनिकों की हार होलने लगी तो ब्रितानियों ने उन पर तथा सामान्य जनता पर भीषण और बर्बर अत्याचार किए।

नीमच के क्रांतिकारियों ने सूबेदार गुरेसराम को अपना कमांडर तय किया। सुदेरी सिंह को ब्रिगेडियर तथा दोस्त मोहम्मद को ब्रिगेड का मेजर तय किया। इनके नेतृत्व में स्वातंत्र्य सैनिकों ने देवली को ओर कूच किया। रास्तें में चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा पड़ते थे। स्वातंत्र्य सेना ने तीनों स्थानों पर मौजूद अँग्रेज़ सेना को मार भगाया तथा शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा के महाराज ने क्रांतिकारियों का खुले दिल से स्वागत किया। दो दिन तक उनकी आवभगत करने के बाद अस्त्र-शस्त्र व धन देकर शाहपुरा नरेश ने क्रांतिकारियों को विदा किया। इसके बाद सैनिक निम्बाहेडा पहुँचे, जहाँ की जनता तथा जागीरदारों ने भी उनकी दिल खोलकर आवभगत की।

देवली की सेना जंग में शामिल
देवली ब्रितानियों की तीसरी महत्वपूर्ण छावनी थी। नसीराबाद तथा नीमच में भारतीय सैनिकों द्वारा शस्त्र उठा लेने के समाचार देवली पहुँच गए थे, अतः अँग्रेज़ पहले ही वहाँ से भाग छूटे। वहाँ मौजूद महीदपूर ब्रिगेड आज़ादी के सेनानियों की प्रतीक्षा कर रही थी। निम्बाहेड़ा से जैसे ही भारतीय सेना देवली पहुँची, यह ब्रिगेड भी उनके साथ हो गई। उनका लक्ष्य अब टोंक था, जहाँ का नवाब ब्रितानियों का पिट्ठु बने हुए थे। मुक्तिवाहिनी टोंक पहुँची तो वहाँ की जनता उसके स्वागत के लिए उमड़ पडी। टोंक नवाब की सेना भी क्रांतिकारियों के साथ हो गई। जनता ने नवाब को उसके महल में बंद कर वहाँ पहरा लगा दिया। भारतयीय सैनिकों की शक्ति अब काफ़ी बढ़ गई थी। उत्साहित होकर वह विशाल सेना आगरा की ओर बढ़ गई। रास्त में पड़ने वाली अँग्रेज़ फ़ौजों को शिकस्त देते हुए सेना दिल्ली पहुँच गई और फ़िरंगियों पर हमला कर दिया।

कोटा के दो सपूत
1857 के स्वतंत्रता संग्राम का एक दुःखद पक्ष यह था कि जहाँ राजस्थान की जनता और अपेक्षाकृत छोटे ठिकानेदारों ने इस संघर्ष में खुलकर फ़िरंगियों का विरोध किया, वहीं अधिकांश राजघरानों ने ब्रितानियों का साथ देकर इस वीर भूमि की परंपरा को ठेस पहुँचाई।

कोटा के उस समय के महाराव की भी ब्रितानियों से संधि थी पर राज्य की जनता फ़िरंगियों को उखाड़ फैंकने पर उतारू थी। कोटा की सेना भी महाराव की संधि के कारण मन ही मन ब्रितानियों के ख़िलाफ़ हो गई थी। भारतीय सैनिकों में आज़ादी की भावना इतनी प्रबल थी कि घ् कोटा कण्टीजेंट ' नाम की वह टुकड़ी भी गोरों के ख़िलाफ़ हो गई, जिसे ब्रितानियों ने ख़ास तौर पर अपनी सुरक्षा के लिए तैयार किया था। कोटा में मौजूद भारतीय सैनिकों तथा जनता में आज़ादी की प्रबल अग्नि प्रज्जवलित करने वाले देश भक्तों के मुख्य थे लाला जयदलाय तथा मेहराब खान। भारत माता के इन दोनों सपूतों के पास क्रांति का प्रतीक घ् रक्त-कमल ' काफ़ी पहले ही पहुँच चुका था तथा छावनियों में घ् रोटी ' के जरिये फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का संदेश भी भेजा जा चुका था।

गोकुल (मथुरा) के रहने वाले लाला जयदयाल को महाराव ने हाड़ौती एजेंसी के लिए अपना वकील नियुक्त कर रखा था। ब्रितानियों को 35 वर्षीय लाला जी की गतिविधियों पर कुछ संदेह हो गया, अतः उन्होंने उनको पद से हटवा दिया। जयदयाल अब सावधानी से जन-जागरण का काम करने लगे। इस बीच नीमच, नसीराबाद और देवली के संघर्ष की सूचना कोटा पहुँच चुकी थी। मेहराब खान राज्य की सेना की एक टुकड़ी घ् पायगा पलटन ' में रिसालदार थे। सेना को क्रांति के लिए तैयार करने में मुख्य भूमिका मेहराब खान की ही थी।

कोटा में स्वराज्य स्थापित हुआ
15 अक्टूबर 1857 को कोटा राज्य की घ् नारायण पलटन ' तथा घ् भवानी पलटन ' के सभी सैनिकों ने तोपें व अन्य हथियार लेकर कोटा में मौजूद अँग्रेज़ सैनिक अधिकारी मेजर बर्टन को घेर लिया। संख्या में लगभग तीन हज़ार स्वराज्य सैनिकों का नेतृत्व लाला जयदयाल और मेहराब खान कर रहे थे। स्वातंत्र्य सेना ने रेजीडेंसी (मेजर बर्टन का निवास) पर गोलाबारी शुरू कर दी। संघर्ष में मेजर बर्टन व उसके दोनों पुत्रों सहित कई अँग्रेज़ मारे गए। रेजीडेन्सी पर अधिकार कर क्रांतिकारियो ने राज्य के भंडार, शस्त्रागारों तथा कोषागारों पर कब्जा करते हुए पूरे राज्य को ब्रितानियों से मुक्त करा लिया। पूरे राज्य की सेना, अधिकारी तथा अन्य प्रमुख व्यक्ति भी घ्स्वराज्य व स्वधर्म ' के सेनानियों के साथ हो गए।

राज्य के ही एक अन्य नगर पाटन के कुछ प्रमुख लोग ब्रितानियों से सहानुभूति रखते थे। स्वातंत्र्य सैनिकों ने पाटन पर तोपों के गोले बरसाकर वहाँ मौजूद ब्रितानियों को हथियार डालने को बाध्य कर दिया। अब पूरे राजतंत्र पर लाला जयदयाल और मेहराब खान का नियंत्रण था। छह महीनों तक कोटा राज्य में स्वतंत्रता सैनानियों का ही अधिकार रहा।

इस बीच कोटा के महाराव ने करौली के शासन मदन सिंह से सहायता माँगी तथा स्वराज्य सैनिकों का दमन करने को कहा। हमारे देश का दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं को अपने ही देशवासियों से युद्ध करना पड़ा। करौली से पन्द्रह सौ सैनिकों ने कोटा पर आक्रमण कर दिया। उधर मेजर जनरल राबर्ट्स भी पाँच हज़ार से अधिक सेना के साथ कोटा पर चढ़ आया। राजस्थान और पंजाब के कुछ राज घरानों की सहायता से अँग्रेज़ अब भारतीय योद्धाओं पर हावी होने लगे थे।

विकट परिस्थिति देख कर मेहराब खान तथा उनके सहयोगी दीनदयाल सिंह ने ग्वालियर राज के एक ठिकाने सबलगढ के राजा गोविन्दराव विट्ठल से सहायता माँगी। पर लाला जयदयाल को कोई सहायता मिलने से पहले ही मेजर जनरल राबर्ट्स तथा करौली और गोटेपुर की फ़ौजों ने 25 मार्च 1858 को कोटा को घेर लिया। पाँच दिनों तक भारतीय सैनिकों तथा फ़िरंगियों में घमासान युद्ध हुआ। 30 मार्च को ब्रितानियों को कोटा में घुसने में सफलता मिल गई। लाला जयदयाल के भाई हरदयाल युद्ध में मारे गए तथा मेहराब खान के भाई करीम खाँ को पकड़कर ब्रितानियों ने सरे आम फाँसी पर लटका दिया।

लाला जयदयाल और मेहराब खान अपने साथियों के साथ कोटा से निकलकर गागरोन पहुँचे। अँग्रेज़ भी पीछा करते हुए वहाँ पहुँच गए तथा गागरोन के मेवातियों का बर्बरता से कल्ते आम किया। ब्रितानियों की बर्बरता यहीं नहीं रुकी, भँवर गढ़, बड़ी कचेड़ी, ददवाडा आदि स्थानों पर भी नरसंहार तथा महिलाओं पर अत्याचार किए गए। उक्त सभी स्थानों के लोगों ने पीछे हटते स्वातंत्र्य-सैनिकों की सहायता की थी। ब्रितानियों ने इन ठिकानों के हर घर को लूटा और फ़सलों में आग लगा दी।

देशभक्तों का बलिदान
अब सभी स्थानों पर स्वतंत्रता सेनानियों की हार हो रही थी। लाला जयदयाल तथा मेहराब खान भी अपने साथियों के साथ अलग-अलग दिशाओं में निकल गए। अँग्रेज़ लगातार उनका पीछा कर रहे थे। डेढ़ साल तक अंग्रजों को चकमा देने के बाद दिसंबर, 56 में गुड़ गाँव में मेहराब खान ब्रितानियों की पकड़ में आ गए। उन पर देवली में मुकदमा चलाया गया तथा मृत्युदंड सुनाया गया।

इस बीच लाला जयदयाल की गिरफ़्तारी के लिए ब्रितानियों ने 12 हज़ार रू. के इनाम की घोषणा कर दी थी। जयदयाल उस समय फ़क़ीर के वेश में अलवर राज्य में छिपे हुए थे। रुपयों के लालच में एक देशद्रोही ने लाला जी को धोखा देकर गिरफ़्तार करवा दिया। उन पर भी देवली में ही मुकदमा चलाया गया। 17 सितम्बर 1860 को लाला जयदयाल और मेहराब खान को कोटा एजेंसी के बग़लें के पास उसी स्थान पर फाँसी दी गई जहाँ उन्होंने मेजर बर्टन का वध किया था। इस तरह दो उत्कट देशभक्त स्वतंत्रता के युद्ध में अपनी आहुति दे अमर हो गए। उनका यह बलिदान स्थान आज भी कोटा में मौजूद है पर अभी तक उपेक्षित पड़ा हुआ है।

कृष्ण जन्माष्ठमी

भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन, रोहिणी नक्षत्र में अर्द्धरात्रि 12 बजे मथुरा नगरी के कारागार में वासुदेव जी की पत्नी देवकी के गर्भ से 16कला सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ। पूर्ण पुरूषोत्तम विश्वम्भर प्रभु श्रीकृष्ण का भाद्रपद मास के अंधकारमय पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्द्धरात्रि के समय प्रादुर्भाव होना निराशा में आशा का संचारस्वरूप है। अर्द्धरात्रि में जबकि अज्ञानरूपी अंधकार का विनाश और ज्ञानरूपी चन्द्रमा का उदय हो रहा था, उस समय देवरूपी देवकी के गर्भ से सबके अन्त:करण में विराजमान श्रीकृष्ण ऎसे प्रकट हुए जैसे कि पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्र उदय हुआ हो। लग्न पर शुभ ग्रहों की दृष्टि, अष्टमी तिथि तथा रोहिणी नक्षत्र जब प़डे तो वह जयन्ती नामक योग बनाती है। जयन्ती योग मानों बना ही इस अवतार के लिए हो। ऎसे श्रीकृष्ण का जन्म यूं ही नहीं हो गया अपितु इसके पीछे भी उनका देवकी एवं वासुदेव को पूर्वजन्म में दिया गया एक वरदान था। भक्तवत्सल श्रीकृष्ण अपने भक्तों पर दया करते रहते हैं और अपना सर्वस्व तक भक्तों की भक्ति पर लुटा देने वाले हैं। अपने पूर्वजन्म में वासुदेव श्रेष्ठ प्रजापति कश्यप थे तथा उनकी पत्नी सुतपा माता अदिति। प्रजापति कश्यप तथा अदिति ने श्रीकृष्ण की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कृष्ण ने उनसे वरदान मांगने को कहा—कश्यप ने वरदानस्वरूप उनके जैसा पुत्र मांगा और श्रीकृष्ण ने उनको यह वरदान दे भी दिया। इस वरदान को देकर श्रीकृष्ण यह सोचने पर विवश हो गए कि इस त्रिभुवन में मेरे समान दूसरा कोई है ही नहीं तो मैं अपनी यह बात पूरी कैसे करूंगा। इसलिए श्रीकृष्ण ने अपने दिए गए वरदान की रक्षा के लिए प्रजापति के अगले जन्म में उनके घर में पुत्र के रूप में जन्म लिया। देवमाता अदिति, देवकी थीं तथा प्रजापति कश्यप वासुदेव।
चंद्रवंश में श्रीकृष्ण के जन्म की एक अन्य कथा भी प्रसिद्ध है। त्रेता युग में भगवान श्रीराम के सूर्यवंश में जन्म लेने के कारण सूर्यदेव अस्त ही नहीं होते थे। इससे चंद्रमा बहुत दुखी हुए और उन्होंने श्रीराम से अपनी व्यथा कही। श्रीराम ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि इस जन्म में तो मेरे नाम के साथ तुम्हारा नाम जु़डेगा(जिसके फलस्वरूप भगवान राम श्री रामचन्द्र कहलाये) और अगले जन्म में मैं तुम्हारे ही वंश में जन्म लूंगा और अवतार स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।
श्रीकृष्ण के मुकुट के मोरपंख के साथ ही उसमें चंद्रमा भी शोभायमान हैं। मथुरा नरेश उग्रसेन के पुत्र कंस जब अपनी बहिन देवकी को ससुराल पहुंचाने जा रहे थे उस समय एक आकाशवाणी ने कंस को भयभीत कर दिया। वह आकाशवाणी थी, ""जिस बहिन को तुम इतने प्यार से पहुंचाने जा रहे हो उसी के आठवें पुत्र द्वारा तुम मारे जाओगे।"" इसको सुनकर कंस ने अपनी बहिन को मारना चाहा परन्तु देवकी के पति वासुदेव ने कंस से देवकी की सभी संतानों को उसे देने के वचन स्वरूप देवकी की जान बचा ली गई। संतान होती और सत्यभीरू वासुदेव उसे कंस को सौंप देते। कंस शिशु को शिला पर पटककर मार देता। छह शिशु मारे गए, सातवें शिशु के रूप में गर्भ में शेषनाग पधारे। योग माया ने उन्हें आकर्षित करके गोकुल में रोहिणी जी के गर्भ में पहुंचा दिया, जो बलराम हुए। अष्टम गर्भ में भगवान श्रीकृष्ण आए। धरती पर असुरों के अत्याचार बढ़ रहे थे तथा आराधक किसी अवतार की प्रतीक्षा में थे। तब श्रीकृष्ण ने अवतार लिया और धरा को इस आतंक से मुक्ति दिलाने की सभी क्रियाएं कीं। कृष्ण की लीलाएं- कभी बाललीलाएं रिझातीं तो कभी गोपियों को खिझातीं, कभी माखन चोरी होती और उस चोरी पर झूठ का आवरण "मैय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो" कहकर चढ़ाया जाता। युवा श्रीकृष्ण गोपियों के साथ रास रचाते साथ ही राधा के साथ अठखेलियां करते और उसके वस्त्रों को छिपा लेते। राधा की भक्ति से प्रसन्न हो, स्वयं को उसका मानकर उसे खुद से पहले पूजे जाने का वरदान देना कृष्ण का यह रूप राधा के आध्यात्मिक स्वरूप को बताता है। राधाजी भगवान श्री कृष्ण की परम प्रिया हैं तथा उनकी अभिन्न मूर्ति भी।
श्रीमद्देवी भागवत में कहा गया है कि श्री राधा जी की पूजा नहीं की जाए तो मनुष्य श्री कृष्ण की पूजा का अधिकार भी नहीं रखता। राधा जी भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं, अत: भगवान इनके अधीन रहते हैं। राधाजी का एक नाम कृष्णवल्लभा भी है क्योंकि वे श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली हैं। माता यशोदा ने एक बार राधाजी से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा। राधाजी ने उन्हें बताया कि च्राज् शब्द तो महाविष्णु हैं और च्धाज् विश्व के प्राणियों और लोकों में मातृवाचक धाय हैं। अत: पूर्वकाल में श्री हरि ने उनका नाम राधा रखा।
भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं—द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज रूप में वे बैकुंठ में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी के साथ वास करते हैं परन्तु द्विभुज रूप में वे गौलोक धाम में राधाजी के साथ वास करते हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम इतना गहरा था कि एक को कष्ट होता तो उसकी पी़डा दूसरे को अनुभव होती। सूर्योपराग के समय श्रीकृष्ण, रूक्मिणी आदि रानियां वृन्दावनवासी आदि सभी कुरूक्षेत्र में उपस्थित हुए। रूक्मिणी जी ने राधा जी का स्वागत सत्कार किया। जब रूक्मिणी जी श्रीकृष्ण के पैर दबा रही थीं तो उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं। बहुत अनुनय-विनय के बाद श्रीकृष्ण ने बताया कि उनके चरण-कमल राधाजी के ह्वदय में विराजते हैं। रूक्मिणी जी ने राधा जी को पीने के लिए अधिक गर्म दूध दे दिया था, जिसके कारण श्रीकृष्ण के पैरों में फफोले प़ड गए। राधा जी श्रीकृष्ण का अभिन्न भाग हैं। इस तथ्य को इस कथा से समझा जा सकता है कि वृदावन में श्रीकृष्ण को जब दिव्य आनंद की अनुभूति हुई तब वह दिव्यानंद ही साकार होकर बालिका के रूप में प्रकट हुआ और श्रीकृष्ण की यह प्राणशक्ति ही राधा जी हैं।
राधाजी का श्रीकृष्ण के लिए प्रेम नि:स्वार्थ था तथा उसके लिए वे किसी भी तरह का त्याग करने को तैयार थीं। एक बार श्रीकृष्ण ने बीमार होने का स्वांग रचा। सभी वैद्य एवं हकीम उनके उपचार में लगे रहे परन्तु श्रीकृष्ण की बीमारी ठीक नहीं हुई। वैद्यों के द्वारा पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि मेरे परम प्रिय की चरण धूलि ही मेरी बीमारी को ठीक कर सकती है। रूक्मणि आदि रानियों ने अपने प्रिय को चरण धूलि देकर पाप का भागी बनने से इंकार कर दिया अंतत: राधा जी को यह बात कही गई तो उन्होंने यह कहकर अपनी चरण धूलि दी कि भले ही मुझे 100 नरकों का पाप भोगना प़डे तो भी मैं अपने प्रिय के स्वास्थ्य लाभ के लिए चरण धूलि अवश्य दूंगी।
कृष्ण जी का राधा से इतना प्रेम था कि कमल के फूल में राधा जी की छवि की कल्पना मात्र से वो मूçच्üछत हो गये तभी तो विद्ववत जनों ने कहा राधा तू ब़डभागिनी, कौन पुण्य तुम कीन। तीन लोक तारन तरन सो तोरे आधीन।। दार्शनिक श्रीकृष्ण अर्जुन को महाभारत के समय उपदेश देते हैं, बंधु-बांधवों का मोह छो़डने की आज्ञा देते हैं तथा कर्म को सर्वस्व मानकर परिणाम को छो़डने की नीति देते हैं और युद्ध में अपनी कूटनीतियों से सत्य को विजय दिलाते हैं।

गुमनामी और उपेक्षा की शिकार श्रीनाथजी की चरणचौकी

कोटा. शहर से मात्र 15 किलोमीटर दूर श्रीनाथजी के साक्षात चरण छपे हैं। यहीं पर करीब 300 साल पहले श्रीनाथजी ने बृज से नाथद्वारा पधारते समय चातुर्मास किया था। जिस स्थान पर वे विराजे थे, उस शिला पर आज तक उनके चरणों के स्पष्ट चिन्ह छपे हैं।


नाथद्वारा व गुजरात सहित देशभर से लोग यहां आते हैं, लेकिन व्यापक प्रचार-प्रसार के अभाव में हाड़ौती के लोगों को यहां की जानकारी ही नहीं है। पर्यटन विभाग, नगर निगम अथवा यूआईटी ने भी इस स्थान को टूरिज्म की दृष्टि से कभी विकसित करने का प्रयास नहीं किया। कोटा समेत देश में 5 और स्थानों पर इस तरह की चरणचौकी स्थापित हैं।


औरंगजेब के शासनकाल के दौरान वर्ष 1724 में श्रीनाथजी अपने 7 स्वरूपों को लेकर पूरे लाव लश्कर के साथ बृज से नाथद्वारा पधारे थे। उस समय बूंदी के राजा अनिरुद्ध सिंह ने भगवान को मोतीपुरा गांव के पास इस स्थान पर चातुर्मास करने और सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने की बात की।


तब श्रीनाथजी ने यहां चातुर्मास किया। उस समय उनकी सुरक्षा के लिए 5 हजार सैनिक यहां लगाए थे। इसके अलावा उनके साथ आया पूरा लाव लश्कर अलग से था। चार माह बाद जब श्रीनाथजी यहां से किशनगढ़ ऊंची गेल के लिए रवाना हुए तब उनका पीछा करता हुआ औरंगजेब मोतीपुरा तक पहुंच गया। यहां औरंगजेब के साथ जमकर युद्ध हुआ। जिसमें हजारों सैनिक शहीद हुए।


सालों से यहां सेवा कर रहे सेवक मदनलाल बताते हैं कि बृज से नाथद्वारा के बीच 6 स्थानों पर श्रीनाथजी ने चातुर्मास किया था। ये सभी स्थान चरण चौकी के रूप में विख्यात हुए। कोटा में यह जगह कृष्ण विलास के रूप में जानी गई। यहां छपे हुए भगवान के चरणों के दर्शन के लिए कोटा संभाग के लोग तो कम आते हैं, लेकिन नाथद्वारा व गुजरात से काफी संख्या में आते हैं। यहां पर पीने के पानी, आने-जाने का सुलभ साधन, रोड लाइट और सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता नहीं होने के कारण दर्शनार्थियों को परेशानी आती है।



सवा लाख रुपए प्रतिदिन आता था खर्च

300 साल पहले श्रीनाथ जी की सेवा, लाव लश्कर और सैनिकों पर बूंदी राजा की ओर से प्रतिदिन 1।25 लाख रुपए का खर्च आयेगा
नाथद्वारा बोर्ड के अधीन

पहले सेवापूजा पास स्थित प्रहलादपुरा गांव की एक महिला करती थी। फिलहाल नाथद्वारा बोर्ड द्वारा यहां की व्यवस्था की जा रही है। देश में इस प्रकार की चरणचौकी आगरा छत्ता बाजार, दंडोतीधार मुरैना मध्यप्रदेश, कोटा में कृष्ण विलास मोतीपुरा, किशनगढ़ ऊंची गेल, चौपासनी जोधपुर व श्रीनाथ द्वारा कृष्ण भंडार में भी हैं।

अमेरिकी सेना का अफसर था गुरुद्वारे में कत्ल-ए-आम करने वाला!


न्यूयॉर्क. अमेरिका के विस्कोंसिन स्थित गुरुद्वारे में हुई अंधाधुंध गोलीबारी की दुनियाभर में हो रही निंदा के बीच 6 लोगों को मौत के घाट उतारने वाले शख्स की पहचान वेड माइकल पेज के तौर पर कर ली गई है। पेज अमेरिकी सेना में मनोवैज्ञानिक ऑपरेशन विशेषज्ञ था, जिसे 1998 में 6 साल की नौकरी के बाद बर्खास्त कर दिया गया था।
अधिकारियों के मुताबिक 40 साल के इस हमलावर को 'खराब चाल चलन' के आरोप में सेना से बर्खास्त किया गया था। पेज को सेना की बुनियादी ट्रेनिंग ओकलाहामा के फोर्ट सिल में दी गई थी। इसके बाद वह टेक्सस के फोर्ट ब्लिस में भेज दिया गया था।
पुलिस अभी इस बात का पता लगाने में जुटी है कि उसने इतने लोगों को क्यों मारा? लेकिन सदर्न पॉवर्टी लॉ सेंटर का दावा है कि वह नियो नाजी (नव नाजी) म्यूजिक ग्रुप 'एंड एपेथी' का पूर्व नेता था।
पुलिस पेज के फ्लैट की जांच में जुटी है। जांच एजेंसियां पेज के हमले को 'आतंकवादी वारदात' मान रही हैं। ब्यूरो ऑफ एल्कोहल, टोबैको एंड फायर आर्म्स के एजेंट ने एबीसी न्यूज को बताया है कि पेज के बाजू पर 9/11 टैटू बना हुआ था। एबीसी न्यूज चैनल ने एक सूत्र के हवाले से यह दावा भी किया है कि वह 'श्वेत लोगों के वर्चस्व और श्रेष्ठता' का समर्थक था।
दूसरी ओर, इस घटना के बाद भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस घटना पर दुख जताते हुए उम्‍मीद जताई है कि अमेरिकी अधिकारी भविष्‍य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए हरसंभव कोशिश करेंगे। घटना भारतीय समयानुसार रविवार रात करीब 10:30 बजे हुई लेकिन मनमोहन सिंह की तरफ से बयान सोमवार दोपहर करीब 12 बजे जारी किया गया।

कुरान का संदेश

धर्म के रीतिरिवाज किसी विशेष धर्म के अनुयाइयों की बपोती नहीं ..आशामल्लाह तीन सालों से पुरे रोज़े रख कर उदाहरण पेश कर रही हैं


दोस्तों धर्म मजहब और धर्मों से जुड़े रीतिरिवाज विधि नियम किसी व्यक्ति विशेष या धर्म के गुलाम नहीं यह तो होसलों और भाईचारे का पैगाम है ..जी हाँ दोस्तों अपने धर्म के सभी निति नियमों को बरकरार रखते हुए यह समाजसेविका आशा कुमारी मल्लाह रोज़े में जब किसी को दिन भर इस्लामिक निति नियमों पर चलता हुआ देखती है तो यह उनकी इस निति का अनुसरण करती है .मुस्लिम धर्म के मुताबिक रमजान के महीने में रोज़े रखना फर्ज़ है ..यह सही है के मुस्लिम धर्म से जुड़े कई लोग रोज़े पुरे नहीं रखते है लेकिन आशा जी है के पिछले तीन सालों से लगातार बिना किसी चुक के रोज़े रख रही है ..एक पीर बाबा के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने जाना के रोज़े से सुकून मिलता है जबकि दुसरे की भूख के दर्द का अहसास होता है ..उनका मन्ना है के रोज़े से खुद का दिली सुकून जीवन शेली का अनुशासन और इश्वर की प्रशंसा सभी एक साथ हो जाते है ........आशा जी अदालत परिसर कोटा में स्टाम्प विक्रेता है वोह सभी से भाईचारे सद्भावना के माहोल में हसंते खेलते अपने सभी काम करते हुए दिन गुजार देती है और नियमित रूप से सुबह सहरी के बाद रोज़े की नियत करती है फिर दिन भार न काहू से दोस्ती न काहू से बेर ..न किसी की आलोचना ना किसी की बुराई ..न बुरा कहना न बुरा देखना बस ख़ामोशी से खुद के काम में समर्पण भाव से लगे रहना फिर इफ्तार के वक्त अजान का इन्तिज़ार वही इफ्तार की दुआ और रोज़ा इफ्तार यही दिन चर्या आशा जी की नियमित है ..आशा जी इन दिनों कुरान ख्वानी करवाती है ..मिलाद शरीफ पड़वाती है .दुसरे धर्म करम करती है कुछ लोगों को साथ रोजा खुलवाती है और ख़ुशी हासिल करती है ..लगातार तीन साल से रोज़े रख रही आशा जी का कहना है के में किसी के लियें नहीं खुदा के लियें और मेरे दिली सुकून के लियें रोज़े रख रही हूँ जमाना क्या सोचता है इससे मुझे मतलब नहीं मेरे इश्वर मेरे अल्लाह के बीच में कोई तीसरा क्यूँ ..उनका कहना है के धर्म सभी एक जेसे होते है मान्यताये एक जेसी होती है प्रार्थना और नमाज़ के तरीके अलग हो सकते है व्रत और रोज़े के तरीके अलग हो सकते है लेकिन मिलते जुले कार्यक्रम और परम्पराएँ तो है उनका कहना है के वोह साल में जो दो नवरात्री आते है वोह पुरे विधि नियमों के तहत रखती है पूजा पाठ करती है ..उपवास रखती है लेकिन रोज़े भी उसी शिद्दत के साथ रख कर खुदा के दरबार में अपना सर झुकाती है ...........आशा जी कामकाजी महिला भी है और समाजसेविका भी लेकिन उनके सर्वधर्म भाव और काहू से दोस्ती ना काहू से बेर की फितरत के कारण ही उनका होसला बुलंद है और कामयाबी की सीड़ियों पर वोह लगातार बुलंदियों पर चढ़ रही है ........आशा जी के आलावा एक समाज सेवक भाई देवेन्द्र पाठक जो रोज़े पुरे तो नहीं रखते लेकिन उनका संकल्प कई वर्षों से है वोह पहला और आखरी रोजा पुरे निति नियमों से रखते है वोह जनेऊ भी डालते है तो उस जनेऊ के साथ अपने गले पीर बाबा की दी हुई तस्बीह भी गले से लगाते है ..तो दोस्तों मन्दिर में अज़ान और मस्जिद में घंटी की आवाज़ सुनने सुनाए के वक्त शुरू हो गए है ..नियत साफ़ तो सब ठीक धर्म कर्म दिखावे से नहीं मन से होता है और आत्मा ..रूह मन की शुद्धिकरण सर्वधर्म भाव से होता है परस्पर मेल जोल से होता है भाईचारे सद्भावना से होता है धर्म तो एक जानवर जेसा व्यवहार करने वाले व्यक्ति को इंसान बनता है मानव बनाता है आत्मीयता मानवता सिखाता है तो आओ दोस्तों कुछ ऐसा किया जाए के रोते हुए को हंसाया जाए और इबादत का कोई मजहब कोई ज़ात कोई धर्म न हो ऐसा कुछ विधि विधान बनाया जाए ...........अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

यूपीए का लंच: सोनिया संग मायावती तो पीएम के साथ बैठे मुलायम


नई दिल्ली.उप राष्ट्रपति के लिए मंगलवार को होने वाले मतदान से एक दिन पहले सोमवार को यूपीए ने लंच का आयोजन किया। इस दौरान यूपी की दो बड़ी राजनीतिक हस्तियां मुलायम सिंह यादव और मायावती तो मौजूद रहीं। लेकिन एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल की गैर मौजूदगी सत्ताधारी गठबंधन के लिए चिंता का सबब बन गया है। लंच के दौरान बीएसपी सुप्रीमो मायावती और एसपी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को 'वीआईपी' स्टेटस दिया गया। मायावती को सोनिया गांधी की टेबल पर जगह दी गई। वहीं, पास में ही प्रधानमंत्री की टेबल पर मुलायम सिंह यादव को जगह दी गई। यूपीए के लिए राहत की बात यह भी रही तृणमूल के भी कुछ सांसदों ने लंच में शिरकत की।
इस बीच, राजीव शुक्ला ने दावा किया है कि तृणमूल कांग्रेस हामिद अंसारी के पक्ष में वोट देगी। यूपीए की कोशिश है कि उप राष्ट्रपति के चुनाव में अपने उम्मीदवार हामिद अंसारी के पक्ष में माहौल बनाया जा सके और ज़्यादा राजनीतिक दलों को अपनी ओर किया जा सके। जानकार यह भी मान रहे हैं कि मायावती को खास तवज्जो देकर कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी को भी यह संदेश देने की कोशिश की है कि अगर वे अहम मुद्दों पर सरकार का समर्थन नहीं करते हैं तो उनके पास अन्य विकल्प भी हैं।

गौरतलब है कि खुदरा में विदेश निवेश की सीमा बढ़ाने के खिलाफ समाजवादी पार्टी ने लेफ्ट का समर्थन करते हुए प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर विरोध किया था। इस बीच, अंसारी को टक्कर दे रहे एनडीए के उम्मीदवार जसवंत सिंह को बड़ा झटका लगा है। बीजू जनता दल ने उप राष्ट्रपति चुनाव में मतदान में हिस्सा न लेने का फैसला किया है। बीजू जनता दल ने राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए समर्थित उम्मीदवार पीए संगमा के पक्ष में वोट दिया था।

जहरीले पौधे के अनोखे प्रयोग:ये इन बीमारियों को खत्म कर देगा

आयुर्वेदिक चिकित्सा में पारद को बड़ा ही महत्व दिया गया है और शिव को प्रिय होने के कारण इसे रसेन्द्र नाम से भी जाना गया है। क्या आपने कभी सोचा है, किऐसी कोई वनस्पति है, जिसे भगवान् शिव ने उसके औषधीय गुणों के कारण पारे के समान माना है। जानना चाहेंगे आप तो हम बताते हैं ,आपको उस दिव्य वनस्पति के बारे में जिसका नाम मदार है। आपने मदार मालाय जय गौरी शंकराय नाम से लोगों को मंत्रउच्चारित करते भी सुना होगा हाँ इसमें भी मदार के महिमा का बखान किया गया है। इस पौधे की पहचान और गुणों की संक्षिप्त चर्चा वीडियो में की जा रही है जिससे आप इसके गूढ़ उपयोगों से साक्षात रूबरू होंगे। मदार के पौधे प्राय: जनसामान्य में विषैले पौधे के रूप में जाने जाते हैं। हाँ, आयुर्वेद में भी इसे उपविष की संज्ञा दी गई है। आइए अब आपको परिचित कराते हैं इस पौधे के औषधीय गुणों से जिसे जानकर आप अचरज में पड़ जाएंगे।

-यदि आप सिर में फंगल संक्रमण के कारण होने वाली खुजली से परेशान हैं तो आप इसका अर्क (दुग्ध ) का स्थानिक प्रयोग करें और लाभ देखें। -मदार के पीले पके पत्तों पर घी चुपड़ कर धीमी आंच में गर्म कर उससे रस निकालकर दो से तीन बूँद कान में डालने से कान के रोगों में बड़ा ही लाभ मिलता है। -दांत के किसी भी प्रकार के दर्द में मदार के दूध में हल्का सैंधा नमक मिलाकर पीड़ा वाले स्थान पर लगा देने मात्र से दंतशूल में लाभ मिलता है। -आक के आठ से दस पत्तों में पांच से दस ग्राम काली मिर्च मिलाकर अच्छी तरह पीसकर ,थोड़ी हल्दी मिलाकर मंजन करने से दांत को मजबूती मिलती है। -आधे सिर के दर्द में पीले पड़े हुए मदार के एक से दो पत्तों के रस को नाक में टपका देने से लाभ मिलता है।

-दमा के रोगियों में मदार के फूल एवं लौंग 10 से 20 ग्राम क़ी मात्रा में काली मिर्च के पाउडर 2.5 ग्राम की मात्रा के साथ अच्छी तरह पीसकर सुबह शाम 250 मिलीग्राम की मात्रा की एक एक गोली देने से भी लाभ मिलता है।

-मदार की जड़ को सुखाकर जलाकर भस्मीकृत कर प्राप्त राख को शहद के साथ 2.5 से 5 ग्राम की मात्रा में लेने खांसी और सांस की तकलीफ में लाभ मिलता है।

-मदार के फूल को सुखाकर त्रिकटु (सौंठ ,मरीच और पिप्पली ) और यवक्षार के साथ मिलाकर बारिक पीस लें।अदरक स्वरस के साथ पीस लें और इसकी छोटी-छोटी गोलियां बना लें। बस तैयार हो गई गले की खरास के लिए चूसने वाली दवा इससे आपका गला ठीक रहता है और सूखी खांसी में भी लाभ मिलता है।

-यदि भोजन नहीं पच रहा हो अर्थात अजीर्ण जैसी समस्या उत्पन्न हो रही हो तो मदार के पत्तों का स्वरस निकाल लें और इसमें बराबर मात्रा में एलोवेरा (घृतकुमारी ) के रस को शक्कर के साथ मिलाकर पका लें। जब चीनी की चासनी बन जाए तो इसे ठंडा कर किसी साफ सी कांच की बोतल में भर लें। -जौंडिस (कामला ) के रोगियों में मदार की एक कोपल को खाली पेट पान के पत्ते में रखकर चबाने से लाभ मिलता है। -यदि पुराना घाव जो ठीक न हो रहा हो या नाडी व्रण/भगंदर जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो तो मदार का दूध 5 से 10 मिली की मात्रा में 2.5 ग्राम दारुहरिद्रा के साथ मिलाकर रूई के बत्ती बनाकर घाव या नासूर पर लगाने मात्र से लाभ मिलता है।

-मदार के दूध में शुद्ध शहद और गाय का घी बराबर मात्रा में मिलाकर इसे खरल में चार से पांच घंटे तक घोटकर 2.5 से 5 ग्राम की मात्रा में खाने से नपुंसकता दूर होती है। -पसलियों या मांसपेशियों की दर्द में मदार के दूध में थोड़ा काला तिल मिलाकर जब लेप सा तैयार हो जाए तो इसे हल्का गर्म कर दर्द वाले स्थान पर लेप कर दें और ठीक इसके ऊपर आक के पत्तों को तिल या सरसों के तेल में चुपड़कर तवे पर हल्का सा गर्म कर प्रभावित स्थान पर बाँध दे।दर्द में फौरन आराम मिलेगा।

-यदि आप जोड़ों की दर्द से हों परेशान तो बस मदार के फूल को सौंठ,काली मिर्च ,हरिद्रा और नागरमोथा के साथ बराबर मात्रा में मिलाकर छोटी-छोटी गोलियां बना लें और इसे एक से दो गोली सुबह-शाम चिकित्सक के निर्देशन में लें इससे आपको निश्चित लाभ मिलेगा।

-मदार के पत्तों को कूटकर पोटली बनाकर ,घी लगाकर तवे पर गर्म कर (पोटली स्वेदन ) करने से भी दर्द में आराम मिलता है।

-कहीं भी खुजली या दाद जैसी स्थिति उत्पन्न हो रही हो तो मदार के फूलों के गुच्छों को तोडऩे से निकले दूध में नारियल का तेल मिलाकर लगाने से खुजली दूर हो जाती है। -त्वचा के रोगों जैसे एक्जीमा आदि में मदार के दूध को 50 मिली की मात्रा में लेकर इससे दुगनी मात्रा में सरसों का तेल ( 100 मिली ) लेकर ,हल्दी के पाउडर 100 ग्राम और मैनसिल 10 ग्राम क़ी मात्रा में एक साथ खरल में दूध के साथ मिलाकर लेप सा बनाकर ,पुन: इसमें तिल तेल एक लीटर और इतना ही पानी मिलाकर पकायें, जब पानी उड़ जाय और तेल सिद्ध हो जाय तो इसे प्रभावित स्थान पर लगाने से चर्म रोगों में बड़ा लाभ मिलता है।

-मदार के पत्तों के रस को लगभग 1000 मिली की मात्रा में लेकर कच्ची हल्दी का रस निकालकर 250 मिली की मात्रा में मिलाकर धीमी आंच पर पकाएं ,जब तेल शेष रहे तो इसे छान कर पुराने से पुराने घाव जिससे मवाद आ रहा हो में लगायें और लाभ देखें -आग से जले हुए घाव में भी लगभग तीन ग्राम मदार के पत्तों की राख को तिल के तेल के साथ मिलाकर खरल में पीसकर इसमें 2.5 ग्राम चूने का पानी मिलाकर जले हुए स्थान पर लेपित करें इससे अग्निदग्ध व्रण में लाभ मिलता है।

-मदार के दूध की 5 बूँद .कच्चे पपीते का रस 10 बूँद और चिरायता का रस 15 बूँद एक साथ गौमूत्र के साथ मिलाकर पुराने बुखार से पीड़ित रोगी में देने से लाभ मिलता है।

-मदार के पत्तों पर जमी सफेदी जो वीडियो में स्पष्ट दिख रही है में मैदा या आंटा के लेई सी बनाकर छोटी- छोटी गोलियां बनाकर खाली पेट सेवन कराने से ततैया के काटे विष के प्रभाव को दूर करने में भी उपयोगी होता है।

मंगल पर जिंदगी की तलाश शुरू, जश्‍न में डूबा नासा


कैलिफोर्निया. कई महीनों के इंतजार और सालों की मेहनत के बाद आखिरकार अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का सबसे हाई टेक मार्स रोवर क्यूरियोसिटी मंगल की सतह पर सुरक्षित उतर गया है। भारतीय समयानुसार करीब 11 बजे 'गेल क्रेटर' में इसकी सफल लैंडिंग हुई। लैंडिंग की घड़ी जैसे-जैसे करीब आ रही थी, वैज्ञानिकों की दिल धड़कनें तेज होती जा रहीं थी। जैसे ही मार्स रोवर के लैंडिंग के सिग्‍नल मिले, कैलिफोर्निया के पसाडेना स्थित लैब में मौजूद नासा के वैज्ञानिक जश्‍न में डूब गए। अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा ने नासा के वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए कहा, 'अमेरिका ने मंगल पर इतिहास रच दिया है।'

नासा ने इसके लाइव प्रसारण की व्‍यवस्‍था की। इसे दुनिया का सबसे महंगा वैज्ञानिक मिशन माना जा रहा है। नासा के इस मिशन में भारतीय वैज्ञानिक भी शामिल हैं। मार्स साइंस लेबोरेटरी के शोध के आधार पर ही मंगल ग्रह पर मानव को भेजने की योजना साकार हो सकेगी।

मर्डर या सुसाइड? फिजा के घर से मिलीं शराब की बोतलें, दरवाजा भी था खुला


चंडीगढ़. हरियाणा के पूर्व डिप्टी सीएम चंद्रमोहन के साथ शादी कर अरसे तक सुर्खियों में रही फिजा उर्फ अनुराधा बाली की संदेहास्‍पद हालत में मौत हो गई है। सोमवार को उनकी लाश उनके घर में मिली। लाश की हालत देखने लायक नहीं रह गई थी । लाश देख कर लगता है कि तीन-चार दिन पहले ही फिजा की मौत हुई थी। सोमवार को उनके चाचा ने पुलिस को बुलाया तब उनकी मौत का पता चला।
फिजा के चाचा सतपाल सोमवार को मोहाली सेक्‍टर 48 स्थित फिजा के घर पहुंचे। घर का ताला टूटा था और दरवाजा खुला था। वहां गली-सड़ी हालत में फिजा का शव पड़ा था। शव पर कीड़े चल रहे थे। शव पर किसी तरह के जख्‍म के निशान नहीं हैं। लेकिन घर में शराब की बोतलें मिली हैं। और दरवाजा भी खुला था। इसलिए यह सवाल गहरा गया है कि फिजा की मौत हत्‍या है, आत्‍महत्‍या या फिर स्‍वाभाविक मौत?
मोहाली के डीएसपी डीएस मान ने कहा कि फिजा के अंकल ने पुलिस को घटना की जानकारी दी। पुलिस मामले की तह तक जाने की कोशिश कर रही है।
फिजा उस समय सुर्खियों में आई थी जब उसने हरियाणा के पूर्व मुख्‍यमंत्री और कांग्रेस पार्टी के वरिष्‍ठ नेता भजनलाल के बेटे व पूर्व डिप्टी सीएम चंद्रमोहन से धर्म परिवर्तन कर शादी कर ली थी। बाद में चंद्रमोहन ने उनसे पल्‍ला झाड़ लिया था।
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