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13 सितंबर 2012

बापू भी चाहते थे हिन्दी ही बने राष्ट्रभाषा

बापू भी चाहते थे हिन्दी ही बने राष्ट्रभाषा

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कोई साढ़े नौ दशक पहले सार्वजनिक मंच से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कहे गए ऐतिहासिक शब्द मानो आज भी इंदौर की फिजा में तैर रहे हैं। यहां बापू ने हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा बनाए जाने का मार्मिक आह्वान किया था। उस वक्त इसकी प्रतिध्वनि आजादी पाने के लिए अंग्रेजों से लोहा ले रहे देश में दूर-दूर तक सुनाई दी थी।

इससे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की आग और भभक उठी थी। मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति के प्रचार मंत्री अरविंद ओझा ने बताया, ‘महात्मा गांधी ने 29 मार्च 1918 को यहां आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। इस दौरान उन्होंने अपने उद्बोधन में पहली बार आह्वान किया था कि हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए। जब बापू ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की अपील की, तब देश गुलामी के बंधनों से आजाद होने के लिये संघर्ष कर रहा था। उस दौर में इस मार्मिक अपील ने देशवासियों के दिल को छू लिया था और उनके भीतर मातृभूमि की स्वतंत्रता की साझी भावना बलवती हो गई थी।’

उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी ने आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दौरान इंदौर से पांच ‘हिन्दी दूतों’ को देश के उन राज्यों में भेजा था, जहां उस वक्त इस भाषा का ज्यादा प्रचलन नहीं था। ‘हिन्दी दूतों’ में बापू के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी शामिल थे। हिन्दी के प्रचार-प्रसार की इस अनोखी और ऐतिहासिक मुहिम के तहत ‘हिन्दी दूतों’ को सबसे पहले तत्कालीन मद्रास प्रांत के लिए रवाना किया गया था।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में बापू ठेठ काठियावाड़ी पगड़ी, कुरते और धोती में लकदक होकर मंच पर थे। इस सम्मेलन का आयोजन मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति ने किया था। उन्होंने कहा था, ‘जैसे अंग्रेज अपनी मादरी जुबान यानी अंग्रेजी में ही बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।’


गांधीजी ने कहा था, ‘हिन्दी वह भाषा है, जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी संस्कृतमयी नहीं है, न ही वह एकदम फारसी अल्फाज से लदी हुई है।’

राष्ट्रपिता ने अदालती कामकाज में भी हिन्दी के इस्तेमाल की पुरजोर पैरवी की थी।

उन्होंने कहा था, ‘हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलना चाहिए। हमारी अदालतों में राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषाओं का जरूर प्रचार होना चाहिए।’

यही थे बापू के अध्यक्षीय उद्बोधन के आखिरी शब्द, जिनसे उनके दिल में बसी हिन्दी जैसे खुद बोल उठी थी, ‘मेरा नम्र, लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम हिन्दी को राष्ट्रीय दर्जा और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज की सब बातें निरर्थक हैं।’

भगवत गीता का संदेश


भगवत गीता का संदेश 
( दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥
भावार्थ :  धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?॥1॥
संजय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥
भावार्थ :  संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा॥2॥
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌ ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥
भावार्थ :  हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए॥3॥
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌ ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌ ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥
भावार्थ :  इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं॥4-6॥
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥
भावार्थ :  हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ॥7॥
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥
भावार्थ :  आप-द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा॥8॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥
भावार्थ :  और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं॥9॥
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌ ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥
भावार्थ :  भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है॥10॥
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥
भावार्थ :   इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें॥11॥
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