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17 नवंबर 2012


राजस्थान में कोंग्रेस और भाजपा की मिलीभगत से निकायों का बुरा हाल ..समितियों का गठन तक नहीं भाजपा चुप


राजस्थान में कोंग्रेस  भाजपा मिली भगत के चलते स्थानीय निकायों के बुरे हाल है यहाँ चाहे जयपुर नगर निगम हो चाहे कोटा चाहे अजमेर चाहे जोधपुर नगर निगम हो या फिर दूसरी नगर परिषदें पालिकाएं हो सभी जगह पर अफसर शाही हावी है जयपुर में तो कई अफसर बदल गए खुद कोंग्रेसी महापोर ने दर्जनों प्रदर्शन किये लेकिन अफसर शाही है के निर्वाचित निकाय का खून चूसने से रुक ही नहीं रही है ...राजस्थान में निकायों की इस दुर्दशा के पीछे अकेली सरकार या अधिकारी ज़िम्मेदार नहीं है बलके विपक्षी दल भाजपा भी इस मामले में सत्ता का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दे रही है ...हम केवल स्वायत शासन विभाग की बात करे कई स्थानों पर क्या किसी भी स्थान पर नगर पालिका अधिनियम के प्रावधानों के तहत ना तो जिला आयोजन समितियों का गठन किया गया है और ना ही अधिनियम की धरा 54 के तहत वार्ड समितियों का गठन किया गया है धरा 54  के प्रावधानों में स्पष्ट है के जिन निकायों की जनसंख्या तीन लाख से अधिक है वहां एक वार्ड में बीस सदस्यों के वार्ड समितियों का गठन होगा और उनका कार्य मिनी पार्षद की तरह होगा ..इसके पीछे कानून की मंशा रही है के एक वार्ड बढ़ा होने से अकेले पार्षद के सम्भालने के बस की बात नहीं रहती इसीलियें उनके प्रतिनिधियों के रूप में सदस्य नियुक्त कर नगरपालिका क्षेत्र में वार्डों के लोगों की समस्या निराकरण के लिए टीम तय्यार करना है लेकिन अफ़सोस राजस्थान में तीन साल से भी अधिक वक्त गुजरने पर भी यहाँ वार्ड समितियों का गठन नहीं किया गया है और हालात बद से बदतर होते जा रहे है हर जिले में अधिकारीयों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच सहित युद्ध की कहानिया है खुदा जाने राजिव गांधी का सपना जिसमे उन्होंने देश की निकाय संस्थाओं को स्वायत्त देकर शहर और गाँव के विकास का सपना सजो कर संविधान में तेहत्तर वां संशोधन किया था उस सपने का क्या होगा ..राजस्थान में भाजपा की सरकार होती तो बात और होती लेकिन राजीव गाँधी के विचारों वाली सरकार में भी अगर राजिव गाँधी के सपने को साकार नहीं किया जाता तो फिर तो जनता का भगवान ही मालिक है .......अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

नमाज़ के तरबीयती पहलू


47-नमाज़ और तबीअत (प्रकृति)

नमाज़ फ़क़त एक क़लबी (दिली) राबते का नाम नही है। बल्कि यह एक ऐसा अमल है जो लोगों के साथ मिल कर तबीअत(प्रकृति) से फ़ायदा हासिल करते हुए अंजाम दिया जाता है। जैसे नमाज़ के वक़्त को जानने के लिए आसमान की तरफ़ देखना चाहिए। क़िबले की सिम्त को जानने के लिए सितारों को देखना चाहिए। पानी की तरफ़ ध्यान देना चाहिए कि पाक साफ़ खालिस और हलाल हो। मिट्टी पर दिक़्क़त करनी चाहिए कि इसमे तयम्मुम और सजदे के सही होने के शरायत हैं या नही। अल्लाह की इबादत तबीअत के बग़ैर नही हो सकती। रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम सहर मे आसमान की तरफ़ नज़रे उठाते और सितारों को देखते हुए फ़िक्र करते और फ़रमाते कि ऐ पालने वाले तूने इनको बेकार पैदा नही किया। और इसके बाद नमाज़ मे मशग़ूल हो जाते। तबीअत (प्रकृति) मे ग़ौरो फ़िक्र अल्लाह को पहचान ने का एक ज़रिया है।
फ़ारसी का मशहूर शाइर सादी कहता है कि हमारे साँस लेने के अमल मे जब यह साँस अन्दर की तरफ़ जाता है तो ज़िन्दगी के लिए मददगार बनता है और जब यही साँस पलट कर बाहर आता है तो सुकून का सबब बनता है। बस इस तरह हर साँस मे दो नेअमतें मौजूद हैँ। और हर नेअमत पर अल्लाह का शुक्र वाजिब है।
हक़ीक़त भी यही है कि अगर साँस हमारे बदन मे दाखिल न हो तब भी हम ज़िन्दा नही रह सकते। और अगर यही साँस वापस बाहर न आये तब भी हम ज़िन्दा नही रह सकते। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि “हर साँस मे हज़ारो नेअमतें हैं क्योँकि दरख्तों के पत्ते भी इंसान के साँस लेने मे मददगार होते हैं। अगर दरख्त कार्बनडाइ आक्साइड को ओक्सीज़न मे न बदलें तो क्या हम साँस ले सकेंगें ? बल्कि समन्द्रो के मगर मच्छ भी इंसान के साँस लेने के अमल मे मददगार होते हैं। क्योँकि समुन्द्रो मे हर दिन रात लाखों छोटे बड़े जानवर मरते हैं। अगर यह मगर मच्छ उनको खाकर पीनी को साफ़ न करें तो पानी बदबूदार हो जायेगा। और पानी के सड़ने की हालत मे इंसान के लिए साँस लेना बहुत मुशकिल हो जायेगा।” अब आप ग़ौर फ़रमाये कि हमारे साँस लेने के अमल मे दरख्तों के पत्ते और समुन्द्रो के मगर मच्छ तक मदद करते हैं। मगर अफ़सोस कि हम तबीअत के राज़ों से वाक़िफ़ नही हैं।
इस्लामी नज़रिये के मुताबिक़ तबीअत(प्रकृति) मे ग़ौरो फ़िक्र एक बड़ी इबादत है। जैसे मिट्टी, पानी, आसमान और दरख्तों वग़ैरह मे ग़ैरो फ़िक्र करना। लेकिन नमाज़ मे तबीअत से फ़ायदा हासिल करने के ज़राय को महदूद कर दिया गया है। जैसे मर्द नमाज़ मे सोने की चीज़ो और रेशमी लिबास को इस्तेमाल नही कर सकते। अल्लाह की बारगाह मे तकब्बुर आमेज़ लिबास पहन कर जाना इन्केसारी के खिलाफ़ है। नमाज़ के बीच मे खाना पीना इबादत के लिए ज़ेबा नही है। ज़मीन पर सजदा करना इबादत है मगर खाने पीने की चीज़ों पर सजदा करना शिकम परस्ती है इबादत नही है। तबीअत मे ग़ौरो फ़िक्र करना सही है मगर तबीअत मे डूब जाना सही नही है। तबीअत राह को तै करने की निशानी है ठहरने या डूबने की जगह नही है। समुन्द्रों का पानी किश्ती को उस पर तैराने के लिए होता है किश्ती मे भर कर उसे डुबाने के लिए नही। सूरज इस लिए है कि लोग उस से रोशनी हासिल करें इस लिए नही कि लोग उसकी तरफ़ देख कर अपनी आखों की रोशनी खत्म कर लें।

48-नमाज़ और तालीम

अगर नमाज़ी यह चाहता है कि उसकी नमाज़ बिलकुल सह हो तो उसे चाहिए कि कुछ न कुछ इल्म हासिल करे। जैसे क़ुरआन को पढ़ने का इल्म, नमाज़ के अहकाम का इल्म, क़िबले की पहचान, तहारत वज़ू ग़ुस्ल और तयम्मुम के तरीक़ों का इल्म, नमाज़ के मुक़द्दमात और शर्तों का इल्म, मस्जिद मे जाने और ठहरने के मसाइल का इल्म, नमाज़ के वाजिबात मे शक करने की सूरत मे नमाज़ के सही होने या बातिल होने का इल्म, नमाज़ के किसी जुज़ के छुट जाने की हालत मे नमाज़ के सही होने या दोबारा पढ़ने का इल्म। यह सब तालीमात फ़िक़्ह और इल्म के बाज़ार को पुर रौनक़ बनाती हैं।

49- नमाज़ और अदब

अगर कोई इंसान अज़ान की आवाज़ सुन कर भी नमाज़ की तरफ़ से लापरवाह रहे तो ऐसा है कि उसने एक तरह से नमाज़ की तौहीन की है। हम को इस्लाम ने इस बात की ताकीद की है कि नमाज़ मे अदब के साथ खड़े हों। दोनों हाथ रानों पर हों, निगाह सजदागाह पर हो, लिबास साफ़ सुथराऔर खुशबू मे बसा हो। और अगर नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ी जाये तो सब लोगों के साथ रहना ज़रूरी है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी रुक्न को दूसरों से पहले या बाद मे अंजाम नही देना चाहिए। इमामे जमाअत से पहले रुकू या सजदे मे नही जाना चाहिए, बल्कि किसी ज़िक्र को भी इमाम से पहले शुरू नही करना चाहिए। यह सब हुक्म इंसान के अन्दर अदब को मज़बूत बनाते हैं। मुहब्बत, माअरिफ़त और इताअत पर मबनी (आधारित) यह अदब उस ज़ात के सामने है जो क़ाबिले इबादत है। जिसमे न दिखावा पाया जाता और न बनावट। जो चापलूसी और खुशामद को पसंद नही करता है। (नमाज़ के इसी अदब को नज़र मे रखते हुए) रसूले अकरम ने फ़रमाया कि “जो इंसान सजदे को बहुत तेज़ी के साथ अँजाम देता है वह कव्वे के ज़मीन पर ठोंग मारने के बराबर है।”

50-नमाज़ मानवी अहमियत को ज़िन्दा करते हैं

जहाँ इमामे जमाअत के लिए आदालत और सहीहुल क़राअत(क़ुरआन के सूरोह का सह पढ़ने वाला) होने वग़ैरह की शर्तें हैं वहीँ हदीस मे यह भी है कि अगर लोग किसी इंसान को इमामे जमाअत के ऐतबार से दिल से पसंद ना करते हों मगर वह फिर भी इमामे जमाअत के फ़रीज़े को अंजाम देता रहे तो उसकी नमाज़ क़बूल नही है।
जो लोग नमाज़े जमाअत की पहली सफ़ मे खड़े होते हैं उन के लिए इस्लाम ने कुछ सिफ़ात ब्य़ान किये हैं। यह सिफ़ात मानवी अहमियत को ज़िन्दा करते हैं। इस से इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि समाज के जो लोग इमामत तक़वे और अदालत से ज़्यादा करीब है उनको ही समाज मे मोहतरम और पेशरो होना चाहिए।

51-नमाज़ की आवाज़ पैदा होने की जगह से कब्र तक

शरीअत ने ताकीद की है कि बच्चे के पैदा होने के बाद उसके कानों मे अज़ान और इक़ामत कही जाये। और मरने के बाद दफ़्न के वक़्त उसकी नमाज़े जनाज़ा को वाजिब किया है। पैदाइश के वक़्त से दफ़्न होने तक किसी भी दूसरी इबादत को नमाज़ की तरह इंसान पर लाज़िम नही किया गया है।

52-नमाज़ मुशकिलों का हल

हदीस मे है कि हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वा आलिहि वसल्लम और अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिमस्सलाम के सामने जब कोई मुश्किल आती थी तो फ़ौरन नमाज़ पढ़ते थे।

53-नमाज़ सिखाना माँ बाप की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी

रिवायत मे ब्यान किया गया है कि बच्चों को नमाज़ याद कराना माँ बाप की सबसे अहम जिम्मेदारी है। माँ बाप को चाहिए कि जब बच्चा तीन साल का हो जाये तो इसको ला इलाहा इल्लल्लाह जैसे कलमात याद करायें। और फिर कुछ वक़्त के बाद उसको अपने साथ नमाज़ मे खड़ा करें। इस तरह उसको आहिस्ता आहिस्ता नमाज़ के लिए तैयार करें। क़ुरआन मे है कि उलुल अज़्म रसूल अपने बच्चों की नमाज़ के बारे मे बहुत ज़्यादा फ़िक्रमंद थे। क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की 132वी आयत मे अल्लाह ने पैगम्बरे इस्लाम (स.) से फ़रमाया कि अपने घर वालों को नमाज़ का हुक्म दो।
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 55वी आयत मे जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की तारीफ़ करते हुए फरमाया कि वह अपने घर वालों को नमाज़ का हुक्म देते थे।
क़ुरआने करीम के सूरए लुक़मान की 17वी आयत मे यह ज़िक्र मिलता है कि जनाबे लुक़मान अलैहिस्सलाम ने अपने बेटे को वसीयत की कि नमाज़ पढ़ो और लोगो को अच्छाईयों की तरफ़ बुलाओ।
क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की 40वी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम अल्लाह से दुआ करते थे कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वाला बना दे।

54-नमाज़ और अल्लाह के ज़िक्र को छोड़ने के बुरे नतीजे

नमाज़ अल्लाह का ज़िक्र है और जो इंसान अल्लाह के ज़िक्र से भागता है वह बहुत बुरी ज़िन्दगी गुज़ारता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की 124वी आयत मे इरशाद हो रहा है कि “जो मेरे ज़िक्र से भागेगा वह सख्त ज़िन्दगी गुज़ारेगा और हम क़ियामत मे ऐसे इंसान को अँधा महशूर करेंगे।”
मुमकिन है आप कहें कि बहुत से लोग नमाज़ नही पढ़ते लेकिन फिर भी अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। मगर आप ज़रा उनकी ज़िन्दगी मे झाँक कर तो देखें कि उनमे आराम, सुकून, प्यार, मुहब्बत और पाकीज़गी पायी जाती है या नही? जब वह दुनियावी परेशानियों का शिकार होते हैं तो चारो तरफ़ से मायूस होकर किस तरह मजबूरी के साथ बैठ जाते हैं। वह दूसरे लोगों को किस निगाह से देखते हैं? तक़वे और अदालत को वह क्या समझते हैं? उन की रूह किस चीज़ से वाबस्ता रहती है ? अपने मुस्तक़बिल (भविषय) से वह कितना मुत्मइन हैं ? आप देखें कि ज़हनी परेशानियाँ, घरेलू उलझनें, जल्दबाज़ी के फैसले, आसाब की कमज़ोरियाँ, बेचैनियाँ, बद गुमानिया, अपने आपको तन्हा समझना, फ़ितना फ़साद, जराइम की बढ़ती तादाद, बच्चों का घरों से भागना, तलाक़ की बढ़ती हुई तादाद, खौफ़ व हिरास वग़ैरह बेनमाज़ी समाज मे ज़्यादा है या नमाज़ी समाज मे।

55-नमाज़ और तवक्कुल

नमाज़ मे हम बार बार बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम को पढ़ते हैं। बिस्मिल्लाह का हर्फ़े बा अल्लाह से मदद माँगने और उस पर तवक्कुल करने की तरफ़ इशारा करता है। अल्लाह की याद से शुरू करना इस बात की निशानी है कि हम उस की ताक़त से मदद चाहते हैं। और उसी पर भरोसा करते हैं।
उसकी याद उससे मुहब्बत की निशानी है।
बस अल्लाह को याद करना चाहिए दूसरों कों नही।
अल्लाह से वाबस्ता रहना चाहिए दूसरों से नही।
बस अल्लाह से वाबस्तगी होनी चाहिए बड़ी ताक़तों और बुतों सेनही।

56-नमाज़ एक रूहे अज़ीम

इंसान नमाज़ मे उस अल्लाह की हम्द व सना (तारीफ़ प्रशंसा) करता है जो पूरी दुनिया को चलाता है। जो सब रहमतों व बरकतों का मरकज़ है, जो रोज़े जज़ा(क़ियामत का दिन) का मालिक है। जो इंसान इन तमाम सिफ़ात वाले अल्लाह की हम्दो सना करता है वह कभी भी किसी ताक़त के सामने नही झुक सकता और न ही किसी दूसरे की हम्दो सना कर सकता। जो ज़बान सच्चे दिल से अल्लाह की हम्दो सना करती है वह कभी भी किसी नालायक़ की तारीफ़ नही कर सकती।
हमे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का यह क़ौल(कथन) हमेशा याद रखना चाहिए कि आप ने फ़रमाया कि “जो इंसान हज़रत रसूले इस्लाम से वाबस्ता हो और हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की आग़ोश मे पला हो वह कभी भी यज़ीद की बैअत नही करेगा।”
सिर्फ़ अल्लाह की हम्दो सना करनी चाहिए क्योँकि वह तमाम दुनिया का पालने वाला है वह रहमान और रहीम है वह क़ियामत के दिन का मालिक है।
दूसरे लोगों की क्या हैसियत है कि मैं उनकी तारीफ़ करूँ। खास तौर पर हर मुसलमान तो जानता ही है कि अगर किसी ज़ालिम की तारीफ़ की जाये तो अर्शे इलाही काँप जाता है।
अल्लाह की हम्दो सना हमारे अन्दर वह ताक़त पैदा करती है कि हम उसके अलावा किसी दूसरे की हम्द करने के लिए तैयार नही होते। यह ताक़त हम नमाज़ और अल्लाह की हम्द से ही हासिल कर सकते हैं।
अफ़सोस कि हमने नमाज़ को तवज्जुह के साथ नही पढ़ा और नमाज़ के हक़ीक़ी मज़े को नही चखा।

57-नमाज़ और विलायत

सिरातल लज़ीनः अनअमतः अलैहिम कह कर हम अल्लाह से यह चाहते हैं कि अल्लाह हमको उन लोगों के रास्ते पर चलाता रह जिन के ऊपर तूने अपनी नेअमतों को नाज़िल किया है। उन के रास्ते को हमारे लिए नमूना-ए-अमल बना जिन्होने तुझ को पहचान कर तुझ से इश्क़ किया। जो तेरी राह पर चले और साबित क़दम रहे। और किसी भी हालत मे तुझ से जुदा नही हुए।
क़ुरआने करीम के सूरए निसा की 69वी आयत मे उन चार गिरोह का ज़िक्र किया गया है जिन पर अल्लाह की नेअमतें नाज़िल हुईं। जो इस तरह हैं---
1-अम्बियाँ 2-शोहदा 3-सिद्दीक़ीन 4- सालेहीन
इंसान नमाज़ मे इन ही चार गिरोह से विलायत, इश्क़, मुहब्बत और दोस्ती का ऐलान करता है। हक़ीक़ी नेअमत का मतलब है अल्लाह पर ईमान रखते हुए उस से राबिता करना, उसकी खुशी की खातिर उसकी राह मे क़दम उठाना और शहीद हो जाना है। वरना माद्दी (भौतिक) नेअमतें तो जानवरों को भी मिल जाती है।
यह मानवी (आध्यात्मिक) मक़ाम ही है जो इंसान को अहम(महत्वपूर्ण) बनाता है। वरना जिस्म के लिहाज़ से तो इंसान बहुतसी मख़लूक़ात से कमज़ोर है। जैसे कि अल्लाह ने क़ुरआन मे भी फ़रमाया है कि ख़िलक़त के लिहाज़ से तुम ज़्यादा क़वी हो या आसमान?
आज की इस दुनिया मे तमाम इजादात (अविष्कार) इंसान की ज़िन्दगी को आराम दायक बनाने के लिए हो रही हैं। अच्छे इंसान बनाने की किसी को भी फ़िक्र नही है। मगर हम नमाज़ मे अल्लाह से ऐसे लोगों के रास्ते पर चलते रहने की दुआ करते हैं जिनको हक़ीक़ी नेअमतें मिल चुकी हैं।

58-नमाज़ इल्म के साथ

अल्लाह आसमान पर रहने वालों और परिन्दों की नमाज़ और तस्बीह के बारे में फ़रमाता है कि उन की नमाज़ और तस्बीह इल्म के साथ है। एक दूसरी जगह फ़रमाता है कि नशे की हालत मे नमाज़ न पढ़ो ताकि तुम को यह मालूम रहे कि नमाज़ मे क्या कह रहे हो। यह जो कहा जाता है कि आलिम की इबादत जाहिल आबिद की इबादत से बेहतर है। यह इस बिना पर कहा जाता कि आलिम इल्म के साथ इबादत करता है।
इस्लाम मे ताजिरों(व्यापारियों) को इस बात की ताकीद की गयी है कि पहले हराम और हलाल के मसाइल को जानो फिर तिजारत करो।
नमाज़ की तालीम के वक़्त भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नमाज़ के राज़ों को नई नस्लो के सामने ब्यान किया जाये ताकि वह इल्म और माअरिफ़त के साथ नमाज़ पढ़ सके।

59-नमाज़ और तंबीह(डाँट डपट)

नमाज़ को रिवाज देने(प्रचलित करने) के लिए समाजी दबाव भी डाला जा सकता है। जैसे रसूले अकरम (स.) के ज़माने मे मैदाने जंग से भागने वाले मुनाफ़ेक़ीन पर समाजी दबाव डाला गया जिसका ज़िक्र क़ुरआने करीम के सूरए तौबा की 83वी आयत मे किया गया है “ कि ऐ रसूल जब इन मुनाफ़ेक़ीन मे से कोई मरे तो उसकी नमाज़े जनाज़ा मत पढ़ाना और न ही उसकी कब्र पर खड़े होना।”
मैं कभी नही भूल सकता कि ईरान इराक़ की जंग के दौरान एक जवान ने वसीयत की थी कि अगर मैं शहीद हो जाऊँ तो मुझे उस वक़्त तक दफ़्न न करना जब तक आपस मे लड़े हुए ये दो गिरोह आपस मे मेल न कर लें। ( अस्ल वाक़िआ यह है कि यह शहीद जिस जगह का रहने वाला था उस जगह पर मोमेनीन को दो गिरोह के दरमियान किसी बात पर इख्तिलाफ़ हो गया था और दोनो ही गिरोह किसी तरह भी आपस मे मेल करने के लिए तैयार नही थे।)
इस जवान ने अपने मुक़द्दस खून के ज़रिये मोमिनीन के दरमियान सुलह कराई। जब कि वह यह भी कह सकता था कि अगर मैं शहीद हो जाऊँ तो फलाँ इंसान या गिरोह को मेरे जनाज़े मे शामिल न करना। और इस तरह वह फ़ितने और फ़साद को और फैला सकता था, मगर उसने इसके बजाये दो गिरोह के बीच सुलह का रास्ता इख्तियार किया।

60-नमाज़ और हाजत

जहाँ पर बुराईयाँ ज़्यादा हैं वहाँ पर नमाज़ की ज़रूरत भी ज़्यादा है। जैसे इंसान रात मे सोता है और बुराईयोँ वग़ैरह मे मशग़ूल नही रहता इस लिए इशा से सुबह तक रात मे किसी नमाज़ को वाजिब नही किया गया। मगर चूँकि दिन मे इंसान को हवाओ हवस, मक्कारी, अय्यारी, ना महरमों के चेहरों के जलवे और दूसरी तमाम शैतानी ताक़तें चारों तरफ़ से घेरे रहती हैं और इनसे बचने के लिए इंसान को दिन मे मानवियत (अध्यात्म) की ज़्यादा ज़रूरत है। इसी लिए क़ुरआने करीम के सूरए हूद की 114वी आयत मे कहा गया कि दिन के अव्वल और आखरी हिस्से मे नमाज़ पढ़ा करो। और सूरए बक़रा की 238वी आयत मे दो पहर की नमाज़ की ताकीद इन अलफ़ाज़ मे की गई है कि तमाम नमाज़ों खास तौर पर नमाज़े ज़ोहर की हिफ़ाज़त करो। और मुनाफ़ेक़ीन की तरह गर्मी को नमाज़े जमाअत छोड़ने का बहाना न बनाओ। (यानी दूसरी नमाज़ों को भी पढ़ो और नमाज़े ज़ोहर को भी पढ़ो)
चूँकि छुट्टी के दिनों मे इंसान खाली होता है। और खाली वक़्त मे बुराईयोँ का खतरा ज़्यादा रहता है इस लिए जुमे और ईद के दिन नमाज़ की ज़्यादा ताकीद की गई है।
क्योंकि लड़कियों के मिज़ाज मे लताफ़त और नज़ाकत पाई जाती है और लतीफ़ व ज़रीफ़ चीज़ो पर बुराईयोँ की गर्द जल्द असर अन्दाज़ हो जाती है। इस वजह से लड़कियों पर 9 साल की उम्र से ही नमाज़ वाजिब कर दी गई है।
जब इंसान की मुश्किलात बढ़ जायें तो ऐसे वक़्त मे ज़्यादा नमाज़ पढ़ने की ताकीद की गई है। अगर यह कहा जाये तो ग़लत ना होगा कि नमाज़ों के वक़्त को हमारी रूही व नफ़सीयाती नज़ाकतों और ज़रूरतों को ध्यान मे रख कर मुऐयन किया गया।(वल्लाह आलम)

61-नमाज़ गुनाहो के सैलाब के मुक़ाबिले मे एक मज़बूत बाँध

जहाँ नमाज़ क़ाइम होती है वहाँ से शैतान फ़रार कर जाता है। और जहाँ पर नमाज़ का सिलसिला खत्म हो जाता है वहाँ से कमालात(अच्छाईयाँ) भी खत्म हो जाते हैँ।
क़ुरआन फ़रमाता है कि “यक़ीनन नमाज़ गुनाहों और बुराईयों से रोकती है।” फिर यह कैसे मुमकिन है कि एक नमाज़ी सुस्त हो, उसका लिबास या मकान ग़सबी हो, उसका बदन और उसकी ग़िज़ा नजिस हो। वह अपनी नमाज़ को सही तौर पर अंजाम देने के लिए मजबूर है कि कुछ चीज़ों से दूरी इख्तियार करे। अल्लाह से राबिते के नतीजे मे इंसान को ऐसी पाकीज़ा रूह हासिल होती है कि वह गुनाह करते हुए शर्माने लगता है।
आपने कहीँ देखा कि कोई मस्जिद से निकल कर जुआ खेलना गया हो।
या कोई मस्जिद से निकल कर किसी फ़साद फैलाने वाली जगह पर गया हो। या कोई मस्जिद से निकल कर किसी के घर मे चोरी करने के इरादे से दाखिल हुआ हो। इसके बर अक्स अगर नमाज़ खत्म हो जाये तो हर तरीक़े की बुराई, शहवत व फ़साद फैलने का खतरा है।
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 59वी आयत मे इरशाद होता है कि “अम्बियां के बाद उनकी जगह पर एक ग़ैरे सालेह नस्ल आई जिसने नमाज़ न पढ़ने, या देर से पढ़ने, या कभी पढ़ने और कभी न पढ़ने के सबब नमाज़ को ज़ाय(बर्बाद) कर दिया और अपनी शहवतों मे गिरफ़्तार हो गये।”
रसूले अकरम (स.) ने फ़रमाया कि “साठ साल के बाद ऐसे अफ़राद बाग-डोर संभालेंगें जो नमाज़ को जाय कर देंगें।” शायद उपर वाली आयत ने जो मफ़हूम ब्यान किया है वह तारीख को नज़र मे रखते हुए ब्यान किया है। (तफ़्सीरे नमूना)
नमाज़ अल्लाह और बन्दों के बीच अल्लाह की रस्सी है।
नमाज़ ईमान को चमकाती है और अल्लाह के साथ बन्दों के राबिते को मज़बूती अता करती है।
नमाज़ अल्लाह से मुहब्बत की निशानी है। क्योंकि जो जिससे मुहब्बत रखता है, वह उससे ज़्यादा से ज़्यादा बातें करना चाहता है।
हदीस मे है कि “ताअज्जुब है ऐसे लोगों पर जो अल्लाह से मुहब्बत का दावा तो करते हैं मगर सहर के वक़्त तन्हाई मे उसके साथ राज़ो नियाज़ और मुनाजात नही करते।”
अगर इंसान का राबिता अल्लाह के वलीयों से खत्म हो जाये तो इंसान ताग़ूत के कब्ज़े मे चला जाता है। और अगर इंसान अल्लाह पर भरोसा नही करता तो ग़ैरो को हाथों बिक जाता है और उनके मज़दूर की सूरत मे उनकी पनाह मे जिन्दगी बसर करता है। और अगर दिल और ईमान का रिश्ता अल्लाह से टूट जाये तो ग़ैरों के साथ रिश्ता जुड़ जाता है।
नमाज़ से अल्लाह और बन्दें का राबिता मज़बूत होता है।
नमाज़ से अल्लाह का रहमो करम बन्दे को हासिल होता है।
नमाज़ से इंसान क़ियामत को याद रखता है।
नमाज़ के ज़रिये इंसान पर यह बात रोशन हो जाती है कि उसको उन लोगों के रास्ते पर चलना है जिन पर अल्लाह ने अपनी नेअमतों को नाज़िल किया। और उन लोगों के रास्ते से बचना है जो गुमराह रहे या अल्लाह के ग़ज़ब का निशाना बने।

62- वक़्त की पाबन्दी नमाज़ की बुनियाद पर

क़ुरआने करीम के सूरए नूर की 58वी आयत मे उन नौ जवानो को जो अभी बालिग़ नही हुए है वालदैन के ज़रिये पैग़ाम दिया जा रहा है कि “नमाज़े सुबह से पहले, नमाज़े इशा के बाद, और ज़ोहर के वक़्त अपने वालदैन के पास(उनके कमरे मे) उनकी इजाज़त के बग़ैर न जाओ।” क्योंकि इस वक़्त इंसान आराम की ग़रज़ से अपने कपड़ो को उतार देता है।
यह बात क़ाबिले तवज्जुह है कि बच्चों के लिए इजाज़त की पाबन्दी नमाज़े सुबह,ज़ोह्र व इशा के वक़्त को ध्यान मे रख कर की गई है।
कितना अच्छा हो कि हम अपने मुलाक़ात के वक़्त को भी इसी तरह मुऐयन करें जैसे नमाज़े ज़ोहर से पहले या नमाज़े इशा के बाद इस तरह हम वक़्त के साथ साथ समाज मे नमाज़ को रिवाज देने मे(प्रचलित करने मे) कामयाब हो जायेंगें।

63- नमाज़ से गुनाह माफ़ होते हैं

क़ुरआने करीम के सूरए हूद की 114वी आयत मे नमाज़ के हुक्म के साथ ही साथ इस बात का ऐलान हो रहा है कि बेशक नेकियाँ बुराईयों (गुनाहो) को खत्म कर देती हैं।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि “अगर गुनाह के बाद दो रकत नमाज़ पढ़कर अल्लाह से उस गुनाह के लिए माफ़ी माँगी जाये तो उस गुनाह का असर खत्म हो जाता है।”(नहजुल बलाग़ा कलमाते हिकमत299)
रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वा आलिहि वसल्लम फ़रमाते हैं”कि दो नमाज़ो के बीच होने वाला गुनाह माफ़ कर दिया जाता है।” (शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 10 पेज206)
इस तरह वह गुनाह जो अल्लाह की याद से ग़फ़लत की वजह से होते हैं, नमाज़ और इबादत की वजह से माफ़ हो जाते हैं। क्योंकि नमाज़ अल्लाह के साथ मुहब्बत और राबते का ज़रिया है। इस तरह माअसियत (गुनाह) की जगह मग़फ़िरत (अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली माफ़ी) ले लेती है।

64- नमाज़ और तालीम का तरीक़ा

तदरीजी(पग पग) तालीम का तरीक़ा वह सुन्नत है जिसको इस्लाम ने भी अपनाया है। और खास तौर पर इबादात मे इसका ज़िक्र किया है।
इस्लाम की तरबीयत से मुताल्लिक़ रिवायात मे हुक्म दिया गया है कि बच्चे को तीन साल तक बिल्कुल आज़ाद रखना चाहिए। इसके बाद उसको ला इलाहः इल्लल्लाह सात बार याद कराना चाहिए। और जब बच्चा तीन साल सात महीने और बीस दिन का हो जाये तो उसको मुहम्मदुर रसूलुल्लाह याद कराना चाहिए। और जब वह पूरे चार साल का हो जाये तो उसको मुहम्मद और आलि मुहम्मद पर सलवात भेजना सिखाना चाहिए। और जब वह पाँच साल का हो जाये और दाहिने, बाँयें हाथ को समझने लगे तो उसको क़िबला रुख बिठाकर सजदा करना सिखाना चाहिए। और जब वह छः साल का हो जाये तो उसको पूरी नमाज़ याद करा देनी चाहिए।
सातवे साल के आखीर मे उसको हाथ और चेहरा धोना(वज़ू करना) सिखाना चाहिए। और नौवे साल के आखिर मे उसकी नमाज़ के बारे मे संजीदगी(गंभीरता) से काम लेना चाहिए और अगर वह नमाज़ पढ़ने से बचना चाहे तो उसके साथ सख्ती का बर्ताव(व्वहार) करना चाहिए।

65- नमाज़ और शहीदों की याद

सजदा करने के लिए सबसे अच्छी चीज़ खाके शिफ़ा (हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कब्र की मिट्टी) है। और इसकी खास तौर पर ताकीद की गई है। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम हमेशा खाके कर्बला पर सजदा करते थे। खाके शिफ़ा पर सजदा करने से बंदा अल्लाह से ज़्यादा क़रीब होता है। और बन्दे और माबूद के दरमियान के पर्दे हट जाते हैं। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कब्र की मिट्टी से बनी तस्बीह को अपने पास रखने के लिए अहादीस मे ताकीद की गई है। और यहाँ तक ज़िक्र किया गया है कि इस तस्बीह को अपने पास रखना सुबहानल्लाह कहने के बराबर है।

आशूरा के पैग़ाम


कर्बला के वाक़ये और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अक़वाल पर नज़र डालने से आशूरा के जो पैग़ाम हमारे सामने आते हैं, उनको इस तरह बयान किया जा सकता।

पैग़म्बर (स.) की सुन्नत को ज़िन्दा करना।

बनी उमैय्या की हुकूमत की कोशिश यह थी कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की सुन्नत को मिटा कर ज़मान-ए-जाहिलियत [1] की सुन्नत को जारी किया जाये। यह बात हज़रत के इस कौल से समझ में आती है कि “ मैं ऐशो आराम की ज़िन्दगी बसर करने या फ़साद फैलाने के लिए नही जा रहा हूँ। बल्कि मेरा मक़सद उम्मते इस्लाम की इस्लाह और अपने जद पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व अपने बाबा अली इब्ने अबि तालिब की सुन्नत पर चलना है।”

बातिल के चेहरे पर पड़ी नक़ाब को उलटना।

बनी उमैय्या अपने इस्लामी चेहरे के ज़रिये लोगों को धोखा दे रहे थे। वाक़िय-ए-कर्बला ने उनके चेहरे पर पड़ी इस्लामी नक़ाब को उलट दिया ताकि लोग उनके असली चेहरे को पहचान सकें। साथ ही साथ इस वाक़िये ने इंसानों व मुसलमानों को यह दर्स भी दिया कि दीन का मुखोटा पहने लोगो की हक़ीक़त को पहचानना ज़रूरी है, उनके ज़ाहिर से धोखा नही खाना चाहिए।

अम्र बिल मारूफ़ को ज़िन्दा करना।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ौल से मालूम होता है कि आपने अपने इस क़ियाम का मक़सद अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर [2] को बयान फ़रमाया है। आपने एक मक़ाम पर बयान फ़रमाया कि मेरा मक़सद अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर है। एक दूसरे मक़ाम पर बयान फ़रमाया कि ऐ अल्ला !  मैं अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर को बहुत दोस्त रखता हूँ।

मोमेनीन को पहचानना।

आज़माइश के बग़ैर सच्चे मोमिनों, मामूली दीनदारो व ईमान के दावेदारों को पहचानना मुश्किल है। और जब तक इन सब को न पहचान लिया जाये, उस वक़्त तक इस्लामी समाज अपनी हक़ीक़त का पता नही लगा सकता।  कर्बला एक ऐसी आज़माइश गाह थी जहाँ पर मुसलमानों के ईमान, दीनी पाबन्दी व हक़ परस्ती के दावों को परखा जा रहा था। इमाम अलैहिस्सलाम ने खुद फ़रमाया कि लोग दुनिया परस्त हैं जब आज़माइश की जाती है तो दीनदार कम निकलते हैं।

इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करना।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का ताल्लुक़ उस ख़ानदान से है, जो इज़्ज़त व आज़ादी का मज़हर है। इमाम अलैहिस्सलाम के सामने दो रास्ते थे एक ज़िल्लत के साथ ज़िन्दा रहना और दूसरे इज़्ज़त के साथ मौत की आग़ोश में सो जाना। इमाम ने ज़िल्लत की ज़िन्दगी को पसंद नही किया और इज़्ज़त की मौत को कबूल कर लिया। आपने ख़ुद फ़रमाया है कि इब्ने ज़ियाद ने मुझे तलवार और ज़िल्लत की ज़िन्दगी के बीच ला खड़ा किया है, लेकिन मैं ज़िल्लत को क़बूल करने वाला नही हूँ।

ताग़ूती ताक़तों से लड़ना।

इमाम अलैहिस्सलाम की तहरीक ताग़ूती ताक़तों के ख़िलाफ़ थी। उस ज़माने का ताग़ूत यज़ीद बिन मुआविया था। क्योँकि इमाम अलैहिस्सलाम ने इस जंग में पैग़म्बरे अकरम (स.) के क़ौल को सनद के तौर पर पेश किया है, कि “ अगर कोई ऐसे ज़ालिम हाकिम को देख रहा हो जो अल्लाह की हराम की हुई चीज़ों को हलाल व उसकी हलाल की हुई चीज़ों को हराम कर रहा हो, तो उस पर लाज़िम है कि उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाये और अगर वह ऐसा न करे, तो उसे अल्लाह की तरफ़ से सज़ा दी जायेगी।”  

दीन पर हर चीज़ को कुर्बान कर देना चाहिए।

दीन की अहमियत इतनी ज़्यादा है कि उसे बचाने के लिए हर चीज़ को कुर्बान किया जा सकता है। यहाँ तक की अपने साथियों, भाईयों और औलाद को भी कुर्बान किया जा सकता है। इसी लिए इमाम अलैहिस्सलाम ने शहादत को कबूल किया। इससे मालूम होता है कि दीन की अहमियत बहुत ज़्यादा है और वक़्त पड़ने पर इस पर सब चीज़ों को कुर्बान कर देना चाहिए।

शहादत के जज़बे को ज़िन्दा करना।

जिस चीज़ पर दीन की बक़ा, ताक़त, क़ुदरत व अज़मत का दारो मदार है वह जिहाद और शहादत का जज़बा है। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दुनिया को यह बताने के लिए कि दीन फ़क़त नमाज़ रोज़े का ही नाम नही है, यह ख़ूनी क़ियाम किया। ताकि अवाम में जज़ब-ए-शहादत ज़िन्दा हो और ऐशो आराम की ज़िन्दगी का ख़त्मा हो। इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने एक ख़ुत्बे में इरशाद फ़रमाया कि मैं मौत को सआदत समझता हूँ। आपका यह जुम्ला दीन की राह में शहादत के लिए ताकीद है।

अपने हदफ़ पर आखरी दम तक जमे रहना।

जो चीज़ अक़ीदे की मज़बूती को उजागर करती है वह अपने हदफ़ पर आख़री दम तक बाक़ी रहना है। इमाम अलैहिस्सलाम ने आशूरा की पूरी तहरीक में यही किया कि अपनी आख़री साँस तक अपने हदफ़ पर बाक़ी रहे और दुश्मन के सामने सर नही झुकाया। इमाम अलैहिस्सलाम ने उम्मते मुसलेमा को बेहतरीन दर्स दिया  कि कभी भी तजावुज़ करने वालों के सामने नही झुकना चाहिए।

जब हक़ के लिए लड़ो तो सब जगह से ताक़त हासिल करो।

कर्बला से, हमें यह सबक़ मिलता है कि अगर समाज में इस्लाह करनी हो या इंक़लाब बर्पा करना हो तो समाज में मौजूद हर तबक़े से मदद हासिल करनी चाहिए। तभी आप अपने हदफ़ में कामयाब हो सकते हैं। इमाम अलैहिस्सलाम के साथियों में जवान, बूढ़े, सियाह सफ़ेद, ग़ुलाम आज़ाद सभी तरह के लोग मौजूद थे।

तादाद की कमी से नही डरना चाहिए।

कर्बला अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इस क़ौल की मुकम्मल तौर पर जलवागाह है कि “ हक़ व हिदायत की राह में अफ़राद की तादाद कम होने से नही डरना चाहिए।” जो लोग अपने हदफ़ पर ईमान रखते हैं उनके पीछे बहुत बड़ी ताक़त होती है। ऐसे लोगों को अपने साथियों की तादाद की कमी से नही घबराना चाहिए और न हदफ़ से पीछे हटना चाहिए। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अगर तन्हा भी रह जाते तब भी हक़ के दिफ़ा से न रुकते और इसकी दलील आपका वह क़ौल है जो आपने शबे आशूर अपने साथियों को मुख़ातब करते हुए फ़रमाया। कि आप सब जहाँ चाहो चले जाओ यह लोग फ़क़त मेरे......।

ईसार और समाजी तरबीयत।

कर्बला तन्हा जिहाद व शुजाअत का मैदान नही है बल्कि सामाजी तरबीयत व वाज़ो नसीहत का मरकज़ भी है। तारीख़े कर्बला में इमाम अलैहिस्सलाम का यह पैग़ाम छुपा हुआ है। इमाम अलैहिस्सलाम ने शुजाअत, ईसार और इख़लास के साये में इस्लाम को निजात देने के साथ साथ लोगों को बेदार किया और उनकी फिक्री व ईमानी सतह को भी बलन्द किया। ताकि यह समाजी व जिहादी तहरीक अपने नतीजे को हासिल कर के निजात बख़्श बन सके।

तलवार पर ख़ून की फ़तह।

मज़लूमियत सबसे अहम असलहा है। यह एहसासात को जगाता है और वाक़िये को जावेदानी (अमर) बना देता है। कर्बला में एक तरफ़ ज़ालिमों की नंगी तलवारें थी और दूसरी तरफ़ मज़लूमियत। ज़ाहेरन इमाम अलैहिस्सलाम और आपके साथी शहीद हो गये । लेकिन कामयाबी इन्हीं को हासिल हुई। इनके ख़ून ने जहाँ बातिल को रुसवा किया वहीं हक़ को मज़बूती भी अता की। जब मदीने में हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्साम से इब्राहीम बिन तलहा ने सवाल किया कि कौन जीता और कौन हारा ? तो आपने जवाब दिया कि इसका फ़ैसला तो अज़ान के वक़्त होगा।

पाबन्दियों से नही घबराना चाहिए।

कर्बला का एक दर्स यह भी है कि अपने अक़ीदे व ईमान पर जमे रहना चाहिए। चाहे तुम पर फौजी व इक़्तेसादी (आर्थिक) पाबन्दियां ही क्यों न लगी हों। इमाम अलैहिस्सलाम पर तमाम पाबन्दियाँ लगायी गई थीं। कोई आपकी मदद न कर सके इस लिए आपके पास जाने वालों पर पाबन्दी थी। नहर से पानी लेने पर पाबन्दी थी। मगर इन सब पाबन्दियों के होते हुए भी कर्बला वाले न अपने हदफ़ से पीछे हटे और न ही दुश्मन के सामने झुके।

निज़ाम

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपनी पूरी तहरीक को एक निज़ाम के तहत चलाया। जैसे बैअत से इंकार करना, मदीने को छोड़ कर कुछ महीनों तक मक्के में रहना, कूफ़े व बसरे की कुछ अहम शख़सियतों को ख़त लिखना और अपनी तहरीक में शामिल करने के लिए उन्हें दावत देना। मक्के, मिना और कर्बला के रास्ते में तक़रीरें करना वग़ैरह। इन सब कामों के ज़रिये इमाम अलैहिस्सलाम अपने मक़सद को हासिल करना चाहते थे। आशूरा के क़ियाम का कोई भी जुज़ बग़ैर तदबीर व निज़ाम के पेश नही आया। यहाँ तक आशूर की सुबह को इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने साथियों के दरमियान जो ज़िम्मेदारियाँ तक़सीम की थीं वह भी एक निज़ाम के तहत थीं।

औरतों के किरदार से फ़ायदा उठाना।

औरतों ने इस दुनिया की बहुत सी तहरीकों में बड़ा अहम किरदार अदा किया है। अगर पैग़म्बरों के वाक़ियात पर नज़र डाली जाये तो हज़रत ईसा, हज़रत मूसा, हज़रत इब्राहीम...... यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने के वाक़ियात में भी औरतों का वुजूद बहुत असर अन्दाज़ रहा है। इसी तरह कर्बला के वाक़िये को जावेद (अमर) बनाने में भी हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा, हज़रत सकीना अलैहस्सलाम, असीराने अहले बैत और शोहदा-ए-कर्बला की बीवियों का अहम किरदार रहा है। किसी भी तहरीक के पैग़ाम को लोगो तक पहुँचाना बहुत ज़्यादा अहम होता है और इस काम को असीराने कर्बला ने अंजाम दिया।

जंग में भी यादे ख़ुदा।

जंग की हालत में भी इबादत व अल्लाह के ज़िक्र को नही भूलना चाहिए। जंग के मैदान में भी इबादत व यादे खुदा ज़रूरी है। इमाम अलैहिस्सलाम ने शबे आशूर की जो मोहलत दुश्मन से ली थी, उसका मक़सद क़ुरआने करीम की तिलावत करना, नमाज़ पढ़ना और अल्लाह से मुनाजात करना था। इसी लिए आपने फ़रमाया था कि मैं नमाज़ को बहुत ज़्यादा दोस्त रखता हूँ। शबे आशूर आपके खेमों से पूरी रात इबादत व मुनाजात की आवाज़ें आती रहीं। आशूर के दिन इमाम अलैहिस्सलाम ने नमाज़े जोहर को अव्वले वक़्त पढ़ा। यही नही बल्कि इस पूरे सफ़र में  हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की नमाज़े शब भी कज़ा न हो सकी भले ही आपको नमाज़ बैठ कर पढ़नी पड़ी हो।  

अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करना।

सबसे अहम बात यह है कि इंसान को अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। चाहे उसे ज़ाहिरी तौर पर कामयाबी मिले या न मिले। यह भी याद रखना चाहिए कि सबसे बड़ी कामयाबी अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करना है, चाहे नतीजा कुछ भी हो। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने भी अपने कर्बला के सफ़र के बारे में यही फ़रमाया कि जो अल्लाह चाहेगा बेहतर होगा। चाहे मैं क़त्ल हो जाऊँ, या मुझे (बग़ैर क़त्ल हुए) कामयाबी मिल जाये। 

मकतब की बक़ा के लिए कुर्बानी।

दीन के मेयार के मुताबिक़ मकतब की अहमियत, पैरवाने मकतब से ज़्यादा है। मकतब को बाक़ी रखने के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम व हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी मासूम शख़्सियतों ने भी अपने ख़ून व जान को फिदा किया हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि यज़ीद की बैअत दीन के अहदाफ़ के ख़िलाफ़ है लिहाज़ा बैअत से इंकार कर दिया और दीनी अहदाफ़ की हिफ़ाज़त के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी, और उम्मते मुसलेमा को समझा दिया कि मकतब की बक़ा के लिए मकतब के चाहने वालों की कुर्बानियाँ ज़रूरी है। यह क़ानून आपके ज़माने से ही मख़सूस नही है बल्कि हर ज़माने के लिए है।

अपने रहबर की हिमायत

कर्बला अपने रहबर की हिमायत की सबसे अज़ीम जलवागाह है। इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने साथियों के सरों से अपनी बैअत को उठा लिया था और फ़रमाया था जहाँ तुम्हारा दिल चाहे चले जाओ। मगर अपके साथी आपसे जुदा नही हुए और आपको तन्हा न छोड़ा। शबे आशूर आपकी हिमायत के सिलसिले में हबीब इब्ने मज़ाहिर और ज़ुहैर इब्ने क़ैन वग़ैरह की बात चीत क़ाबिले तवज्जोह है। यहाँ तक कि आपके असहाब ने मैदाने ज़ंग में जो रजज़ पढ़े उससे भी अपने रहबर की हिमायत ज़ाहिर होती है। जैसे हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि अगर तुमने मेरा दाहिना हाथ जुदा कर दिया तो कोई बात नही, मैं फिर भी अपने इमाम व दीन की हिमायत करूँगा।
मुस्लिम इब्ने औसजा ने आखिरी वक़्त में जो हबीब को वसीयत की वह भी यही थी कि इमाम को तन्हा न छोड़ना और इन पर अपनी जान क़ुर्बान कर देना।

दुनिया की मुहब्बत सबसे ज़्यादा ख़तरनाक है।

दुनिया के ऐशो आराम व मालो दौलत से मुहब्बत तमाम लग़ज़िशों व फ़ितनो की जड़ है। जो लोग मुनहरिफ़ हुए या ज़िन्होने अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा नही किया उनके दिलों में दुनिया की मुहब्बत समायी हुई थी। यह दुनिया की मुहब्बत ही तो थी जिसने इब्ने ज़ियाद व उमरे सअद को इमाम हुसैन का खून बहाने पर मजबूर किया। लोगों ने शहरे रै की हुकूमत के लालच और अमीर से मिलने वाले ईनामों की इम्मीद पर इमाम अलैहिस्सलाम का ख़ून बहा दिया। यहां तक कि जिन लोगों ने आपकी लाश पर घोड़े दौड़ाये उन्होंने भी इब्ने ज़ियाद से अपनी इस करतूत के बदले ईनाम माँगा। शायद इसी लिए इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया था कि लोग दुनिया परस्त हो गये हैं दीन फ़क़त उनकी ज़बानो तक रह गया है। खतरे के वक़्त वह दुनिया की तरफ़ दौड़ने लगते हैं। चूँकि इमाम अलैहिस्सलाम के साथियों के दिलों में दुनिया की ज़रा भी मुहब्बत नही थी इस लिए उन्होंने बड़े आराम के साथ अपनी जानों को राहे ख़ुदा में क़ुर्बान कर दिया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने आशूर के दिन सुबह के वक़्त जो ख़ुत्बा दिया उसमें भी दुश्मनों से यही फ़रमाया कि तुम दुनिया के धोखे में न आ जाना।

तौबा का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है।

तौबा का दरवाज़ा कभी भी बन्द नही होता, इंसान जब भी तौबा कर के सही रास्ते पर आ जाये बेहतर है। हुर जो इमाम अलैहिस्सलाम को घेर कर कर्बला के मैदान में लाया था, आशूर के दिन सुबह के वक़्त बातिल रास्ते से हट कर हक़ की राह पर आ गया। हुर इमाम अलैहिस्सलाम के क़दमों पर अपनी जान को कुर्बान कर के कर्बला के अज़ीम शहीदों में दाख़िल हो गया। इससे मालूम होता है कि हर इंसान के लिए हर हालत में और हर वक़्त तौबा का दरवाज़ा खुला है।

आज़ादी

कर्बला आज़ादी का मकतब है और इमाम अलैहिस्सलाम इस  मकतब के मोल्लिम हैं। आज़ादी वह अहम चीज़ है जिसे हर इंसान पसन्द करता है। इमाम अलैहिस्सलाम ने उमरे सअद की फौज से कहा कि अगर तुम्हारे पास दीन नही है और तुम क़ियामत के दिन से नही डरते हो तो कम से कम आज़ाद इंसान बन कर तो जियो।

जंग में पहल नही करनी चाहिए।

इस्लाम में जंग को औलवियत (प्राथमिकता) नही है। बल्कि जंग, हमेशा इंसानों की हिदायत की राह में आने वाली रुकावटों को दूर करने के लिए की जाती है। इसी लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) हज़रत अली अलैहिस्सलाम व इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने हमेशा यही कोशिश की, कि बग़ैर जंग के मामला हल हो जाये। इसी लिए आपने कभी भी जंग में पहल नही की। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने भी यही फ़रमाया था कि हम उनसे जंग में पहल नही करेंगे।

इंसानी हुक़ूक़ की हिमायत

कर्बला जंग का मैदान था मगर इमाम अलैहिस्सलाम ने इंसानों के माली हुक़ूक़ की मुकम्मल हिमायत की। कर्बला की ज़मीन को उनके मालिकों से खरीद कर वक़्फ़ किया। इमाम अलैहिस्सलाम ने जो ज़मीन ख़रीदी उसका हदूदे अरबा (क्षेत्र फ़ल) 4x 4 मील था। इसी तरह इमाम अलैहिस्सलाम ने आशूर के दिन फ़रमाया कि ऐलान कर दो कि जो इंसान कर्ज़दार हो वह मेरे साथ न रहे।

अल्लाह से हर हाल में राज़ी रहना।

इंसान का सबसे बड़ा कमाल हर हाल में अल्लाह से राज़ी रहना है। इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने ख़ुत्बे में फ़रमाया कि हम अहले बैत की रिज़ा वही है जो अल्लाह की मर्ज़ी है। इसी तरह आपने ज़िन्दगी के आख़री लम्हे में भी अल्लाह से यही मुनाजात की कि ऐ पालने वाले ! तेरे अलावा कोई माबूद नही है और मैं तेरे फैसले पर राज़ी हूँ। 

शोहदाए बद्र व ओहद और शोहदाए कर्बला


मौलाना ग़ुलामुस्सय्यदैन जौरासी

 शोहदाए बद्र व ओहद और शोहदाए कर्बला
ख़ासाने रब हैं बदरो ओहद के शहीद भी
लेकिन अजब है शाने शहीदाने करबला।
 राहे ख़ुदा में शहीद हो जाने वाले मुजाहेदीन का फ़ज़्ल व शरफ़ मोहताजे तआरूफ़ नहीं है। शोहदाऐ राहे ख़ुदा के सामने दुनिया बड़ी अक़ीदत व एहतेराम से अपना सर झुकाती नज़र आती है बल्कि ग़ैर मुस्लिम हज़रात, दिन के वहां शहादत का पहले कोई तसव्वुर भी नहीं था, लफ़्ज़े शहादत को अपनाने में किसी बख़्ल से काम नबीं लेते।
 अलबत्ता दरजात व मरातिब के एतबार से तमाम शोहदा को मसावी क़रार नही दिया जा सकता है। जिस तरह क़ुराने करीम के मुताबिक़ बाज़ अम्बिया को बाज़ अम्बिया और बाज़ मुरसलीन को बाज़ मुरसलीन पर फ़ज़ीलत हासिल थी उसी तरह बाज़ शोहदा को बाज़ शोहदा पर तफ़व्वुक़ व बरतरी हासिल है। हुज़ूर ख़तमी मरतबत के दौर में दीगर शोहदा के मुक़ाबले में शोहदा-ए-बद्रो ओहद एक एम्तेयाज़ी शान के मालिक थे जिसकी सनद अक़वाले मुरसले आज़म से ली जा सकती है। मगर शोहदाए बद्रो ओहद भी बाहम यकसां फ़ज़ीलतों के हामिल नहीं थे बल्कि ज़ोहदो तक़वा और शौक़े शहादत के मद्दोजज़्र नें उनके दरमियान फ़रक़े मुरातब को ख़ाएम कर रखा था। चुनान्चे जंगे ओहद में हालांकि नबीए करीम के कई मोहतरम सहाबियों ने जामे शहादत नोश फ़रमाया था मगर सय्यदुश् शोहदा होने का शरफ़ सिर्फ़ जनाबे हमज़ा को ही हासिल हो सका। मुसलमानों का एक तबक़ा अपनी जज़्बाती वाबस्तगी की बिना पर शोहदा-ए-बद्रो ओहद की मुकम्मल बरतरी का क़ाएल है लेकिन अगर निगाए इंसाफ़ से देखा जाए तो जंगे बद्रो-ओहद और ज़गे करबला के हालात में नुमायां फ़र्क़ नज़र आएगा। जंगे बद्रो-ओहद में अहले इस्लाम की तादात 313 और कुफ़्फ़ार की तादात 950 थी। यानी तनासिब एक और तीन का था। इसी तरह जंगे बद्र में लश्करे इस्लाम की तादाद कम से कम 700 और लश्करे और कुफ़्फ़ार की तादाद ज़्यादा से ज़्यादा 5000 थी। गोया यहां भी तनासिब एक और सात का था और जंगे करबला में फ़ौजे हुसैनी की तादाद सिर्फ़ 72 थी जिनमें बच्चे और बूढ़े भी शामिल थे जबकि दुश्मन की फ़ौज की तादात 80000 थी, यानी तनासिब एक और ग्यारह का था। अब अगर फ़ौजे हुसैनी की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद वाली रिवायतों को और यज़ीदी फ़ौज की कम से कम तादात वाली रिवायतों को पेशे नज़र रखा जाए, तब भी सिपाहे हुसैनी की तादाद 127 और यज़ीदी लश्कर की तादाद 20000 थी, यानी तनासिब एक और एक सौ अट्ठावन का था।
 इस के अलावा शोहदा-ए-बद्रो ओहद को बंदिशे आब का सामना भी नहीं था जबकि इमामे हुसैन (अ.) के साथ भूख और प्यास के आलम में सेरो सेराब दुश्मन से नबर्दो आज़मा होने के बावुजूद ज़बानों पर शिद्दते अतश का कोई ज़िक्र भी न लाए। जंगे बद्र में अल्लाह ने मुसलमानों की 3000 फ़रिश्तों और जंगे ओहद में 5000 मलाएका से मदद फ़रमाई, नैज़े ग़ैबी आवाज़ के ज़रिए मलाएका की नुसरत का वादा फ़रमाकर अहले इस्लाम के दिलों को तक़वीयत पहुंचाई और हक़्क़े तआला ने मुसलमानों को ख़्वाब में दुशमनों की तादाद कम करके दिखाई ताकि इस्लामी लशेकर के हौसले पस्त न होने पाएं इस के अलावा नुज़ूले बारान के ज़रिए भी मैदाने जंग को मुस्लिम मुजाहेदीन के लिए हमवार किया गया।
 मज़कूरा बाला हक़ाएक़ का ज़िक्र कर सूरए आले इमरान और सूरए अनफ़ाल में मौजूद है जबकि शोहदाए करबला के लिए मन्दरजा बाला सहूलतों में से किसी एक सहूलत का भी वुजूद लज़र नहीं आता फिर भी उनके पाए इस्तेक़ामत में कोई लग़ज़िश और हौसलों में कोई कमी पैदा न हो सकी।
     शोहदा-ए-बद्रो ओहद के सामने जंग के दो पहलू थे, मनसबे शहादत का अबदी इनाम या दुशमनों को फ़िन्नार करके ग़ाज़ी के ख़ेताब के साथ माले ग़नीमत का हुसूल।
 बल्कि अक्सर इस्लामी जंगों में बाज़ मुजाहेदीन के लिए माले ग़नीमत में वो कशिश थी के अल्लाह को क़ुरआने करीम में हिदायत करना पड़ी, और रसूल जो तुसको अता करें वो ले लो और जिससे रोक दें उस से रुक जाओ। चुनांचे यही माले ग़नीमत की कशिश थी जिसने जंगे ओहद की फ़तह को शिकस्त में तबदील कर दिया। अब ये और बात है कि इसी माले ग़नीमत के तुफ़ैल में बाज़ मुजाहेदीन को माले ग़नीमत के बजाए शहादत की दौलत हाथ आ गई लेकिन शोहदाए करबला के पेशे निगाह सिर्फ़ और सिर्फ़ शहादत की मौत थी। 
 शोहदा-ए-बद्रो ओहद के वास्ते ख़ुदा और रसूल के हुक्म की तामील में जंग में शिरकत वाजिब थी बसूरत दीगर अज़ाबे ख़ुदा और ग़ज़बे इलाही से दो-चार होना पड़ता। लेकिन अंसारे हुसैन के लिए ऐसी कोई बात नहीं थी बल्कि शबे आशूर इमामे हुसैन (अ.) ने अपने असहाब की गरदनों से अपनी बैअत भी उठा ली थी। और उनको इस बात की बख़ुशी इजाज़त मुरत्तब फ़रमा दी थी कि परदए शब में जिसका जहां दिल चाहे चला जाए क्योंकि दुश्मन सिर्फ़ मेरे सर का तलबगार है, यहां तक कि आप ने शमा भी गुल फ़रमा दी ताकि किसी को जाने में शर्म महसूस न हो। मगर क्या कहना इमामे मज़लूम के बेकस साथियों का कि उन्होंने फ़रज़ंदे रसूल को दुश्मनों के नरग़े में यक्कओ तनहा छोड़कर जाना किसी ऊ क़ीमत पर क़ुबूल नहीं किया चाहे इसके लिए उन्हे बार-बार मौत की अज़ीयत से ही क्यों न गुज़रना पड़ता।
 जंगे बद्रो ओहद में जामे शहादत नोश करने वाले मुजाहेदीन के दिलों में इस जज़्बे का मौजूद होना क़ुरैन अक़्लोक़यास है  कि हम अपनी जानों को सरवरे काएनात पर क़ुरबान करके अपने महबूब नबी की जाने मुबारक बचा लें बल्कि मुरसले आज़म के बाज़ अन्सार की क़ुरबानियां सिर्फ़ हयाते रसूले अकरम पर मुलहसिर थीं चुनांचे जंगे ओहद में लड़ाई का पासा पलटने के बाद जब ये शैतानी आवाज़ मुजाहेदीने इस्लाम के गोश गुज़ार हुई कि माज़ अल्लाह मोहम्मद क़त्ल कर दिए गए तो इस ख़्याल के पेशे नज़र अक्सर मुसलमानों के क़दम उखड़ गए कि जब रसूल ही ज़िन्दा नहीं रहे तो हम अपनी जान देकर क्या करें जबकि रसूले अकरम उनको आवाज़ें भी दे रहे थे। लेकिन अन्सारे हुसैन इस हक़ीक़त से बख़ूबी आशना थे कि हम अपनी जानें निसार करने के बाद भी मज़लूमे करबला की मुक़द्दस जान को न बचा पाएंगे। फिर भी उन्होने अपनी जान का नज़राना पेश करने में किसी पसोपेश से काम नहीं लिया बल्कि ख़ुद को इमामे आली मक़ाम पर क़ुरबान करने में एक दूसरे पर सबक़त करते नज़र आए लेकिन शौक़े शहादत और क़ुरबानी का जोशो वलवला नुक़्तए उरूज पर होने के बावुजूद इज़्ने इमाम के बग़ैर एक क़दम भी आगे बढ़ाने की  जुरअत नहीं की। हां इमाम से इजाज़त मिलने के बाद उरूसे मर्ग को गले लगाने के लिए मैदाने जंग की तरफ़ यूं दौड़ पड़ते थे जिस तरह कोई शख़्स अपनी इन्तेहाई महबूब और अज़ीज़ शै के हुसूल के वास्ते सअई करने में उजलत करता है।
 चूंकि शोहदाए बद्रो ओहद असहाबे पैग़म्बरे अकरम और शोहदाए करबला असहाबे इमामे हुसैन थे लेहाज़ा मुमकिन है कि बाज़ अफ़राद को शोहदाए करबला की मंदरजा बाला फ़ज़ीलत का इज़हार नागवार महसूस हो लेकिन हमारी या आपकी क्या मजाल कि किसी को फ़ज़ीलत दे सकें क्येंकि फ़ज़्लो शरफ़ का अता करने वाला तो वो अल्लाह है जो अपने बंदों को, अन अकरम कुम इन्दल्लाहो अतक़ाकुम, के उसूल पर फ़ज़ीलतों का हामिल क़रार देता है। फिर हज़रत इमाम हुसैन (अ.) का ये क़ौले पाक कि, जैसे असहाब मुझे मिले वैसे न मेरे नाना को मिले और न मेरे बाबा को, शोहदाए करबला की अज़मतों को ज़ाहिर करने के लिए काफ़ी है।  ज़ियारते नाहिया में हज़रत हुज्जतुल अस्र का मंदरजा ज़ेल इरशादे गिरामी भी शोहदाए करबला की रफ़अतों को बख़ूबी आशकार फ़रमा रहा है कि, अस्सलामो अलैका या अंसारा अबी अबदिल्लाहिल हुसैन, बाबी अनतुम वअमी तमत्तुम व ताबतलअर्ज़ल्लती फ़ीहा दफ़नतुम, ऐ अबू अबदुल्लाहिल हुसैन के नासिर व तुम पर हमारा सलाम, मेरे बाप व मां तुम पर फ़िदा, तुम ख़ुद भी पाक हुए ऐर वो ज़मीन भी पाक हो गई जिस पर तुम दफ़्न हुए नासिर उन इमामे मज़लूम को मासूम का मंदरजा बालाख़ेराज अक़ीदत उनकी अज़मतो जलालत को दीगर तमाम शोहदा पर साबित करने के लिए एक संगेमील की हैसियत रखता है। 
 आख़िरे कलाम में वालिदे माजिद ताबा सराह का एक क़ता अन्सारे हुसैन (अ.) की शान में पेशे ख़िदमत है-
अन्सार जुदा शाह से क्योंकर होते
गरदूं से जुदा क्या महो अख़तर होते
होते जो कहीं और ये हक़ के बंदे
उस क़ौम के मअबूद बहत्तर होते।

(मौलाना बाक़िर बाक़िरी जौरासी)

मातोश्री से शुरू होगी अंतिम यात्रा, शिवसेना भवन में होगा 'प्रथम दर्शन'



मुंबई।  गत बुधवार से तबियत बिगड़ने के बाद ठाकरे परिवार के अलावा और कोई भी बाला साहब को देख नहीं सका है। देहांत के बाद उनके पार्थिव शरीर का प्रथम दर्शन शिवसैनिक करेंगे। सुबह सात बजे के करीब बाला साहब की अंतिम यात्रा उनके घर मातोश्री से शुरू होगी। यहाँ से उनके पार्थिव शरीर को सीधे शिव सेना भवन ले जाया जाएगा, जहां पार्टी कार्यकर्ता उन्हें श्रद्धांजलि देंगे।
 
सुबह 10 बजे तक उनके पार्थिव शरीर को इसी भवन में रखा जाएगा और फिर उन्हें शिवाजी पार्क ले जाया जाएगा। शाम 5:00 बजे तक उनके पार्थिव शरीर को जनता दर्शन की लिए शिवाजी पार्क में रखा जाएगा। जबकि शाम 6:00 बजे शिवाजी पार्क के पास स्थित श्मशान में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
 
शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के अंतिम संस्‍कार में दस लाख से अधिक लोग आ सकते हैं। ऐसा अनुमान मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों का है। दूसरी ओर, ठाकरे के निधन के साथ ही मुंबई में तनाव की स्थिति बन गई है।
 
महानगर के कई इलाकों में शिवसैनिक जबरन रेस्‍त्रा, होटल व दुकानें बंद करवा रहे हैं। जबकि, कई जगहों पर लोगों ने खुद ही दुकानें बंद कर दी हैं। मुंबई पुलिस के अनुसार, पूरे शहर में बीस हजार से अधिक पुलिसवालों को किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए लगा दिया गया है। 
 
 
 
दिल का दौरा पड़ने से हुआ बाल ठाकरे का निधन
 
बाल ठाकरे का दिल का दौरा पड़ने से शनिवार को निधन हो गया । मातोश्री के बाहर आकर डॉक्‍टरों ने बताया कि बाल ठाकरे का दोपहर साढ़े तीन बजे निधन हो गया। जिस वक्‍त बाल ठाकरे ने अंतिम सांस लीं, उस वक्‍त उनके बेटे जयदेव और उद्धव वहां मौजूद थे। खबर है कि पिता के निधन के बाद उद्धव की तबीयत भी खराब हो गई है।
 
 
शोक में डुबी  मुंबई
 
मुंबई के सभी सिनेमा हॉल शनिवार शाम छः बजे से बंद कर दिए गए। रविवार को पूरे मुंबई के किसी भी सिनेमा हॉल में कोई शो नहीं दिखाया जाएगा।  मुंबई पुलिस ने लोगों से अपील की है कि बिना किसी कारण वे अपने घर से बाहर न निकलें। भीड़ को ध्यान में रखते हुए रविवार को मुंबई में 35 हजार टैक्सी और 90 हजार ऑटो नहीं चलेंगे। जबकि बेस्ट की बसों का चक्कर बढ़ा दिया गया है। 
 
 
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जताया  दुख
 
ठाकरे की मौत के बाद से पूरे मुंबई में दुख की लहर दौड़ गई है। मुंबई के कई इलाकों में दुकानों को बंद कर दिया गया है। वहीं, मातोश्री के बाहर हजारों की तादाद में शिवसैनिक जुट गए हैं और बाल ठाकरे का अंतिम दर्शन करना चाहते हैं। कांग्रेस और भाजपा ने उनकी मौत पर दुख जताते हुए उनकी आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थना की है। बाल ठाकरे के निधन पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी दुख जताया है और भाजपा नेताओं के साथ आज रात के डिनर को कैंसिल कर दिया है।  
 
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी ठाकरे के निधन पर दुख जताया है। भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने कहा, 'मुझे यह सुनकर बहुत दुख हुआ कि एक शेर नहीं रहा।'  जबकि, शहनवाज हुसैन ने कहा कि ठाकरे का निधन महाराष्ट्र, देश और एनडीए के लिए झटका है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठाकरे के निधन पर कहा, 'मैं पिछले कुछ दिनों से बाला साहेब की दीर्घायु के लिए प्रार्थना कर रहा था। वह योद्धा की तरह जीवन की जंग लड़ रहे थे। आखिर में हम सब को निराश होना पड़ा। बाला साहब का जाना एक युग की विदाई है।' ठाकरे का अंतिम दर्शन करने के लिए मोदी मुंबई भी जाएंगे। 
 
इससे पहले मातोश्री पर आज अचानक से हलचल बढ़ गई थी। अचानक से नेताओं का जमावड़ा शुरू हो गया था और पुलिस पहले से अधिक सक्रिय हो गई थी। मीडिया को भी निर्धारित स्‍थान से पीछे कर दिया गया था।

कुरान का संदेश

मेरे दोस्त और मेरे दुश्मनों लियें एके बुरी खबर है .

मेरे दोस्त और मेरे दुश्मनों  लियें एके बुरी खबर है ......दोस्तों के लियें बुरी  खबर इसलियें के उन्हें फिर से बोर करने के लियें में भला चंगा होकर नई नई बातें लिख कर पढने के लिये मजबूर करूंगा ..दुश्मनों के लियें बुरी खबर इसलियें के अब उनकी बद्दुआओ को मेरे दोस्तों की दुआओं ने असफल कर मुझे  घोषित कर दिया है ..जी हा दोस्तों सोलाह नवम्बर की रात अचानक मेरे सीने  में तकलीफ हुई और ब्लड प्रेशर हाई होने के साथ  लोग प्रेषण हो गए परिवार वाले बाहर छुटियाँ मना रहे थे तुरंत दोड कर कोटा आये और एक निजी अस्पताल में सभी तरह की जांचें शुरू करवा दी  ..सीने में दर्द के कारण सांस लेने में तकलीफ भी जरूरी थी बीमारी के हालत में भी मेने अपने दोस्तों को उलटा सुलटा लिख कर बोर करना नहीं छोड़ा चिकित्सक और परिजन परेशान थे एक पैकेज में सभी तरह की जांचें हुई आज रिपोर्ट मिली खुदा का शुक्र है जिसका डर था वोह बीमारी नहीं निकली मामूली से दिल की खराबी थी दिल का बाक़ी हिस्सा इसलियें सुरक्षित और ठीक था क्योंकि इस दिल में खुदा के साथ साथ मेरे मित्र के रूप में आप लोग रहते है ..थोडा में भी घबराया था लेकिन अब रिपोर्ट के बाद मेने भी चेन की साँस ली है थोडा बहुत मामला खराब है जो आपकी दुआओं और डाक्टर की दवाओं के अलावा मेरे परहेज़ से ठीक हो जाएगा ..में यही सोचता था के जिस दिल में खुदा और आप दोस्तों के रूप में बसते हो उस दिल में कोई भी खराबी केसे निकल सकती है और खुदा ने मेरी सुन ली .....अब मेरे परिजन भी खुश है थोड़ी बहुत जो खराबी है उसके जल्दी ठीक होने की दुआएं कर रहे है लेकिन फिर में अपने अंदाज़ में यही कहूँगा के मेरे मित्रों और दुश्मनों के लियें यह बुरी ही खबर है में मेरे मित्रों को मेरे अपने अंदाज़ में उलटा सुलटा लिख कर बोर करूंगा और दुश्मन मुझे मेरे मित्रों के साथ हंसता खेलता स्वस्थ देख कर परेशान रहेंगे खेर ख़ुशी इस बात की है के में अभी भी किसी दुसरे को अपनी उम्र लग जाने की दुआएं दे सकता हूँ ..बस मेरे दोस्त मेरे लियें ऐसा ही प्यार बनाये रखें ...........मेरे मित्रों ने मुझे झेला और आगे झेलने की मजबूरी स्वीकार करना पढ़ेगी इसलियें लियें उनका शुक्रिया ...अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान 

बाल ठाकरे का निधन, मुंबई में मातम



मुंबई।  शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का दिल का दौरा पड़ने से शनिवार को निधन हो गया है।  मातोश्री के बाहर आकर डॉक्‍टरों ने बताया कि बाल ठाकरे का दोपहर साढ़े तीन बजे निधन हो गया। जिस वक्‍त बाल ठाकरे ने अंतिम सांस लीं, उस वक्‍त उनके बेटे जयदेव और उद्धव वहां मौजूद थे। लाइफ सपोर्ट सिस्‍टम पर होने के बावजूद ठाकरे को बचाया नहीं जा सका। 
 
दादर स्थित शिवाजी पार्क में रविवार को बाल ठाकरे के शव को अंतिम दर्शन के लिए रखा जाएगा। ठाकरे की मौत के बाद से पूरे मुंबई में दुख की लहर दौड़ गई है। कांग्रेस और भाजपा ने उनकी मौत पर दुख जताते हुए उनकी आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थना की है। 
 
इससे पहले मातोश्री पर आज अचानक से हलचल बढ़ गई थी। अचानक से नेताओं का जमावड़ा शुरू हो गया था और पुलिस पहले से अधिक सक्रिय हो गई थी। मीडिया को भी निर्धारित स्‍थान से पीछे कर दिया गया था। 
 
बाल ठाकरे की सेहत को लेकर डॉक्‍टरों की ओर से आज दोपहर तक मीडिया को कुछ नहीं बताया गया था, लेकिन पार्टी के नेता और अखबार 'दोपहर का सामना' के जरिए उनकी सेहत बेहतर बताई जा रही थी।
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