आपका-अख्तर खान

हमें चाहने वाले मित्र

30 नवंबर 2012

विश्व में विधिक सहायता का इतिहास

विश्व में विधिक सहायता का इतिहास
विधि का स्वरूप और निर्माण स्वभावतया विधिकारों से संबद्ध और संतुलित होता है। विधि का रूप तभी परिष्कृत एवं परिमार्जित हो पाता है जब उस देश की विधिक वृत्ति पुष्ट और परिष्कृत होती है। प्राचीन आदियुग में समाज की संपूर्ण क्रियाशक्ति मुखिया के हाथ में होती थी। तब विधि का स्वरूप बहुत आदिम था। ज्यों ही न्यायप्रशासन व्यक्ति के हाथ से समुदायों के हाथ में आया कि विधि का रूप निखरने लगा, क्योंकि अब नियम व्यक्तिविशेष की निरंकुश मनोवांछाएँ नहीं, सार्वजनिक सिद्धांत के रूप में होते। विधि के उत्कर्ष में सदा किसी समुदाय की सहायता रही है। मध्य एशिया में सर्वप्रथम न्यायाधीशों, धर्मप्रधान देशों में धर्मपंडितों, मिस्र और मेसोपोटामिया में न्यायाधीशों, ग्रीस में अधिवक्ताओं और पंचों, रोम में न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं एवं न्यायविशेषज्ञों, मध्यकालीन ब्रिटेन और फ्रांस में न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं एवं एटर्नी तथा भारत में विधिपंडितों ने सर्वप्रथम विधि को समुचित रूप दिया। प्रत्येक देश का क्रम यही रहा है कि विधिनिर्माण क्रमश: धर्माधिकारियों के नियंत्रण से स्वतंत्र होकर विधिकारों के क्षेत्र में आता गया। विधिविशेषज्ञों के शुद्ध बौद्धिक चिंतन के सम्मुख धर्माधिकारियों का अनुशासन क्षीण होता गया।
आरंभ में व्यक्ति न्यायालय में स्वयं पक्षनिवेदन करते थे, किसी विशेष द्वारा पक्षनिवेदन की प्रथा नहीं थी। विधि का रूप ज्यों ज्यों परिष्कृत हुआ उसमें जटिलता और प्राविधिकता आती गई, अत: व्यक्ति के लिए आवश्यक हो गया कि विधि के गूढ़ तत्वों को वह किसी विशेषज्ञ द्वारा समझे तथा न्यायालय में विधिवत् निवेदन करवाए। कभी व्यक्ति की निजी कठिनाइयों के कारण भी यह आवश्यक होता कि वह अपनी अनुपस्थिति में किसी को प्रतिनिधि रूप में न्यायालय में भेज दे। इस प्रकार वैयक्तिक सुविधा और विधि के प्राविधिक स्वरूप ने अधिवक्ताओं (ऐडवोकेट्स) को जन्म दिया। पाश्चात्य एवं पूर्वी दोनों देशों में विधिज्ञाताओं ने सदा से समाज में, विद्वान् होने के कारण, बड़ा समान प्राप्त किया। इनकी ख्याति और प्रतिष्ठा से आकृष्ट होकर समाज के अनेक युवक विधिज्ञान की ओर आकर्षित होने लगे। क्रमश: विधिविशेषज्ञों के शिष्यों की संख्या में वृद्धि होती गई और विधिसम्मति प्रदान करने के अतिरिक्त इनका कार्य विधिदीक्षा भी हो गया। फलस्वरूप इन्हीं के नियंत्रण में विधि-शिक्षा-केंद्र स्थापित हुए। विधि सम्मति देने अथवा न्यायालय में अन्य का प्रतिनिधि बन पक्षनिवेदन करने का यह पारिश्रमिक भी लेते थे। क्रमश: यह एक उपयोगी व्यवसाय बन गया। आरंभ में धर्माधिकारी तथा न्यायालय इस विधिक व्यवसाय को नियंत्रित करते थे किंतु कुछ समय पश्चात् व्यवसाय तनिक पुष्ट हुआ तो इनके अपने संघ बन गए, जिनके नियंत्रण से विधिक वृत्ति शुद्ध रूप में प्रगतिशील हुई। विधिक वृत्ति में सदा दो प्रकार के विशेषज्ञ रहे-एक वह जो अन्य व्यक्ति की ओर से न्यायालय में प्रतिनिधित्व कर पक्षनिवेदन करते, दूसरे वह जो न्यायालय में जाकर अधिवक्तृत्व नहीं करते किंतु अन्य सब प्रकार से दावे का विधि-दायित्व लेते। यही भेद आज के सौलिसिटर तथा ऐडवोकेट में है। विधिक वृत्ति की प्रगति की यह रूपरेखा प्राय सब देशों में रही है।

रोमन विधिक वृत्ति (Roman legal profession)

वैयक्तिक सुविधा और विधि की जटिलता को लक्ष्य कर रोम में विधिविशेषज्ञों से विधिसंमति लेने की प्रथा स्थापित हुई। विधिज्ञाता अपने उच्चतर ज्ञान द्वारा जनसाधारण की सहायता करते। चतुर विधिज्ञाता वादी या प्रतिवादी एक पक्ष को विधि के अनुकूल वक्तव्य रटा देते, वह उन्हीं शब्दों में न्यायालय में अपना पक्ष निवेदन करता। इस सहायता के लिए यह पारिश्रमिक भी लेते। रोमन युवक इस व्यवसाय की ओर आकृष्ट हुए और विधि का अध्ययन करने लगे। 300 ई. पू. के पार्श्वकाल में विधिविशेषज्ञ वादी या प्रतिवादी को वक्तव्य लिखकर देने के स्थान पर उनके प्रतिनिधि बन न्यायालय में उनका पक्ष निवेदित करने लगे। सिसरो इसी प्रकार के एक प्रमुख अधिवक्ता थे। प्रमुख अधिवक्ताओं के संसर्ग में रहनेवाले युवक विधिशिक्षा ग्रहण करते। इन वैयक्तिक शिक्षा केंद्रों में यह विशेषज्ञ सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की शिक्षा देते अतएव यह अधिवक्तओं के स्रष्टा भी थे। इन वैयक्तिक शिक्षाकेंद्रों के अतिरिक्त यूरोप और मध्य यूरोप में अन्य विधि-शिक्षा-केंद्र स्थापित हुए। एथेंस, एलगजंाड्रिया, कुस्तुनतुनिया तथा बेरूत में 5वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में ऐसे केंद्रों का वर्णन मिलता है। शिक्षाकेंद्रों के प्रादुर्भाव के साथ ही यह नियम भी बना कि अधिवक्ता पद ग्रहण करने के लिए इन केंद्रों में निश्चित काल की उपस्थिति एवं प्रमाणपत्र अनिवार्य है। यह अवधि कहीं चार तथा कहीं पाँच वर्ष तक निर्धारित थी। आटोमन साम्राज्य काल की समृद्धि में इटली, वेविया, मिलान इत्यादि में विधिक वृत्ति की शिक्षा होती रही। बारहवीं शताब्दी में रेनासाँ के साथ रोम की विधिशिक्षा की पुनर्जाग्रति हुई तथा समस्त यूरोप में विधिक वृत्ति के शिक्षालय निर्मित हुए।

फ्रांस में

फ्रांस में भी अधिवक्ता और विधि सहायक दो प्रकार के विधिवृत्तिकार थे। तेरहवीं शताब्दी से अधिवक्ताओं ने प्रतिनिधि रूप में पक्षनिवेदन आरंभ कर दिया था। चौदहवीं शताब्दी में अधिवक्ता इतने लोकप्रिय हो गए थे कि इनको पक्षनिवेदन की विधिवत् स्वीकृति मिल गई और इनके नियंत्रणार्थ राज्य द्वारा एक विधि नियम बना। इसके अनुसार इन्हें सद्व्यवहार की शपथ ग्रहण करनी पड़ती तथा राज्य को कुछ कर देना पड़ता। इन्हें उचित पारिश्रमिक लेने की अनुमति प्राप्त थी। साधरणतया अब सब न्यायालयों में अधिवक्ताओं द्वारा ही पक्षनिवेदन किया जाता। अधिवक्ता संघ भी थे जो कालांतर में इतने शक्तिसंपन्न हुए कि अधिवक्ता वृत्ति का व्यवहार संचालन और नियंत्रण करने लगे। केवल इनके सदस्यों को ही पक्षनिवेदन करने का एकाधिकार प्राप्त था।

इंग्लैंड में

इंग्लैंड में तेरहवीं शताब्दी में शुद्ध विधिक वृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। इससे पूर्व विधिक वृत्ति धार्मिक संस्थाओं से संबंधित थी। अधिवक्ता और विधि सहायक का भेद यहाँ भी विद्यमान था। आरंभ में न्यायालय की विशेष अनुमति प्राप्त कर ही अधिवक्ता द्वारा पक्षनिवेदन किया जाता; क्रमश: यह साधारण व्यवहार बन गया। एडवर्ड प्रथम के काल से अधिवक्ता के विरुद्ध पक्ष के प्रति असावधानी तथा धोखे का दावा चल सकता था। कामन लॉ अधिवक्ता तथा धार्मिक संस्थाओं के अधिवक्ताओं में भेद किया गया तथा उन्हें कामन लॉ न्यायालयों में विशेष अवसरों के अतिरिक्त वक्तृत्व का अधिकार नहीं रहा। ईयर बुक के अनुसार तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी में ही देश में अधिवक्ता समुदाय समुचित रूप धारण कर चुका था तथा इंग्लैंड की विधिप्रणाली की मुख्य शक्ति था। इसी समय इनके दो भेद हुए, साजेंट तथा अप्रेंटिस। जो राज्य की ओर से दावों में पक्षनिवेदन करते वे सार्जेट (राज्यसेवक) कहलाए, दूसरे अप्रेंटिस माने गए। सार्जेंट को अप्रेंटिस से अधिक सुविधाधिकार प्राप्त थे। ईयर बुक संभवत: इन्हीं की संपादित है। अधिवक्ता और पक्षों के बीच एक समझौता होता, जिसका प्रवर्तन न्यायालय में विधिवत् असावधानी या किसी अन्य दोष के लिए हो सकता था। अधिवक्ता संघ "इन" कहलाते। मुख्य के नाम थे, लिंकन इन, ग्रेज़ इन, दिन इनर टेंपल, दि मिडिल टेंपल। इन संघों में इंग्लैंड की विधि की शिक्षा दी जाती जो विश्वविद्यालयों में नहीं मिलती थी। अतएव ये विधि व्यवसाय के शिक्षालय भी थे। इनमें सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार की शिक्षा दी जाती। पंद्रहवीं शताब्दी तक ये संघ पुष्ट हो चुके थे। शिष्यों को अधिवक्तृत्व का प्रमाणपत्र देने का इन्हें एकाधिकार प्राप्त था। इन्हीं की आज्ञा से अटर्नी पक्षनिवेदन के अधिकार से वंचित हुए। यह भेद आज के सौलिसिटर तथा अधिवक्ता में विद्यमान है, प्रथम सौलिस्टर तथा दूसरा बैरिस्टर के नाम से प्रचलित है। इंग्लैंड की विधिक वृत्ति का एक विशेष रूप यह है कि जहाँ अन्य यूरोपीय देशों में विधिशिक्षा, शिक्षालयों द्वारा नियंत्रित हुई, यहाँ विधि वृत्ति संघों ने विधिशिक्षा, शिक्षालयों द्वारा नियंत्रित हुई, यहाँ विधि वृत्ति संघों ने विधिशिक्षा का दायित्व ग्रहण कर इसे नियंत्रित किया। अतएव इंग्लैंड में विधि धार्मिक अंकुश से स्वाधीन हो शुद्ध रूप में प्रगतिशील हो पाई।

भारत की स्थिति

भारतीय आर्य परंपरा के अनुसार आदिकाल से विधिपूर्ण न्याय की अपेक्षा की जाती थी। न्यायकारी के रूप में राजा सर्वदा विधिआबद्ध होता। ऋग्वैदिक काल में पुरोहित, विधिज्ञाता, एवं धर्मसूत्रकाल में विधिपंडितों एवं उनकी सभाओं की सहायता से न्यायप्रशासन होता। गौतमसूत्र में इस प्रकार का विधिज्ञाता प्राङ्विवाक के नाम से वर्णित है जिसने संभवत: क्रमश: न्यायाधीश का रूप लिया। बृहस्पति का कथन है कि न्यायालय के समक्ष त्रुटिपूर्ण याचिका अस्वीकृत हो जाती। इससे स्पष्ट है कि विधि का रूप बहुत कुछ प्राविधिक हो चुका था तथा न्याय कार्य में विधिविशेषज्ञों की सहायता आवश्यक थी। किंतु यह विधिसहायक राज्य द्वारा नियुक्त होते तथा समाज में यह एक प्रमुख व्यवसाय था किंतु आधुनिक अधिवक्ता का परिचय इस काल में नहीं मिलता। विधिक प्रतिनिधि द्वारा पक्षनिवेदन की प्रथा नहीं थी। न्यायालयों में राजकीय विधिपंडित, तथा समाज में विधिज्ञाता होते, जिनसे विधिक सहायता लेने की प्रथा अवश्य थी। बहुधा यह पारिश्रमिक भी लेते।
यवनों (विदेशियों) के आगमन के पश्चात् न्यायप्रशासन यवन या मुसलिम प्रथा के अनुसार होने लगा। यवन प्रथा के अनुसार भी स्पेन, तुर्किस्तान, ईरान में इस्लाम राज्य के आरंभ में अधिवक्ता की प्रथा नहीं मिलती। काजी, मुफ्ती, मुज्तहिद विधिज्ञाता होते, जिनकी सहायता से कुरान एवं इज्मा के अनुकूल न्याय किया जाता। सुबुक्तगीन, महमूद गजनी तथा मोहम्मद गोरी ने यही प्रथा भारत में प्रचलित की। इब्नबतूता के कथनानुसार तुगलक काल में वकील का वर्णन मिलता है। अकबर के राज्यकाल में वकील प्रथा थी या नहीं, इसपर मतभेद है। इनका वर्णन जैसे फिखए फीरोजशाही तथा फतवा ए आलमगीरी में है। औरंगजेब के राज्यकाल में वकील प्रथा थी, यह प्रमाणित है। नियम था कि दोनों पक्षों की तथा उनके वकीलों की अनुपस्थिति में दावा अस्वीकृत हो जाता। इतिहासकार बादौनी, राय अरजानी नामक एक हिंदू वकील का वर्णन करता है। सर टामस रो ने भी इस काल में वकील प्रथा होने की बात की पुष्टि की है। ईस्ट इंडिया कंपनी के कई दावों में वकीलों द्वारा पक्षनिवेदन का वर्णन प्राप्त होता है। भारत के अंतिम स्वतंत्र शासक बहादुरशाह के समय में ज्ञात होता है कि एक व्यक्ति को चतुर अधिवक्ता होने के लिए वकालत खाँ की पदवी दी गई थी। औरंगजेब के काल से ही वकील (अधिवक्ता) राजकीय तथा साधारण दोनों प्रकार के होते थे। राजकीय अधिवक्ता वकील-ए-सरकार तथा साधारण अधिवक्ता वकील-ए-शहरा कहलाते थे। वकील-ए-सरकार को एक रुपया प्रति दिन वेतन मिलता था। यह आवश्यक था कि सब अधिवक्ता वकालतनामा लेकर ही पक्षनिवेदन करें।
तत्पश्चात् ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में विशेष प्रदेशों में अधिवक्ता संबंधी रेग्यूलेशन धाराएँ बनीं। सर्वप्रथम 1793 ई. में बंगाल, बिहार, उड़ीसा में लार्ड कार्नवालिस के उद्योग से विधिक वृत्ति व्यवस्थित हुई। इस धारा के अनुकूल इनकी शपथप्रणाली, निश्चित पारिश्रामिक, वकालतनामे द्वारा ही पक्षनिवेदन का अधिकार एवं सदर दीवानी अदालत द्वारा अधिवक्तृत्व की सनदप्राप्ति, सब बातें निश्चित हुईं तथा वकील एवं मुख्तार दोनों को अधिवक्तृत्व का अधिकार प्राप्त हुआ। 1803 ई. में उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेशों में विधिक वृत्ति का नियम बना। 1802 में मद्रास तथा 1802 और 1827 में बंबई प्रांत में इसी प्रकार के रेग्यूलेशन नियम बने। सब प्रदेशों के लिए सार्वजनिक रूप से विधिक वृत्ति का नियंत्रण सर्वप्रथम 1846 ई. में विधिनियम द्वारा हुआ। इसके अनुसार पूर्व नियम के विरुद्ध केवल हिंदू, मुसलमान ही नहीं किसी धर्म का अनुयायी भी अधिवक्ता हो सकता था एवं बैरिस्टरों को सुप्रीम कोर्ट के अतिरिक्त सदर अदालतों में भी पक्षनिवेदन की अनुमति प्राप्त हुई। किंतु यह केवल कंपनी के न्यायालयों से संबंधित था। 1865 ई. में विधिनियम द्वारा प्लीडर, मुख्तार, रेवेन्यू प्रतिनिधि विधिवत् रूप से अधिवक्तृत्व के अधिकारी हुए। 1879 में इसका संशोधन हुआ तथा हाईकोर्ट का अधिवक्ताओं को सनद देने तथा उससे वर्जित करने का अधिकार प्राप्त हुआ। 1923 ई. में स्त्रियों को अधिवक्ता होने का अधिकार स्पष्ट हुआ। अंत में देश के समस्त एवं विभिन्न श्रेणियों के अधिवक्ताओं में समानता लाने के हेतु 1926 में इंडियन बार काउंसिल ऐक्ट पास हुआ। वर्तमान काल में बैरिस्टर सोलिसिटर (एटर्नी), वकील, प्लीडर, मुख्तार, रेवेन्यू एजेंट अधिवक्तृत्व के अधिकारी हैं। इनका नियंत्रण इसके अधिवक्ता संघ, बार काउंसिल, तथा देश के विशेष नियमों एवं अधिनियमों द्वारा होता है। अन्य देशों की भाँति यहाँ भी निजी सुविधा एवं विधि प्राविधिकता के कारण अधिवक्ता का जन्म हुआ। किंतु यहां तीन प्रेसीडेंसी टाउन के अतिरिक्त सालिसिटर की प्रथा कहीं नहीं मिलती।
विधिक वृत्ति आरंभ में न्यायालय में विधि के गूढ़ार्थ को स्पष्ट करने के सहायतार्थ थी। आज भी इसका मुख्य कार्य यही है। इसके अतिरिक्त आज अधिवक्ता केवल विधिविशेषज्ञ नहीं, समाज के निर्देशक भी हैं। आधुनिक समाज का स्वरूप एवं प्रगति मुख्यत: विधि द्वारा नियंत्रित होती है, और विधानसभाओं द्वारा निर्मित विधि केवल सैद्धांतिक मूल नियम होती है, उसके शब्दजाल को व्यवस्थित कर जो स्वरूप चाहें अधिवक्ता उसे प्रदान करते हैं। अतएव विधि का व्यावहारिक रूप अधिवक्ताओं के हाथों ही निर्मित होता है, जिसके सहारे समाज प्रगति करता है-विधिक वृत्ति आधुनिक समाज का मुख्य आधार स्तंभ है।

बहुत ही चमत्कारी है ये मंत्र, पति-पत्नी में बढ़ाता है प्रेम




परिवार के सदस्यों के बीच यदि मतभेद हो तो आए दिन विवाद होते रहते हैं। यह मतभेद अक्सर पति-पत्नी के बीच होते हैं। कई बार इनके कारण बड़ा विवाद भी हो जाता है। इसका असर परिवार के अन्य सदस्यों पर भी पड़ता है। कई बार आप यह समझ ही नहीं पाते कि इस समस्या से कैसे छुटकारा पाएं ?
आपकी इस समस्या का हल नीचे लिखे कुंजिका स्त्रोत के मंत्र का नियमित जप करने से हल हो सकती है। इस मंत्र का जप इस प्रकार करें-

मंत्र-
धां धी धू धूर्जटे: पत्नी वां वी वू वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शा शीं शू में शुभं कुरू।।

जप विधि
- प्रतिदिन इस मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए।
- जप लाल चन्दन की माला से करना चाहिए और पूजा के समय कालिका देवी या दुर्गाजी की तस्वीर पर लाल पुष्प अवश्य चढ़ाएं।
 

कुरान का सन्देश

शनि चालीसा: शनि महाराज को मनाने का है असरदार व आसान उपाय




शनिवार का दिन शनि उपासना का विशेष और शुभ दिन है। खासतौर पर शनि की दशा जैसे साढ़े साती, महादशा की वजह से जीवन में आ रही परेशानियों को दूर करने की कामना से यह बहुत ही असरदार है। 
शनि का स्वभाव क्रूर माना गया है। किंतु शनि की प्रसन्नता खुशहाली भी लाती है। अगर आप भी शनि दशा से गुजर रहें हों या शनि दशा शुरू होने वाली हो तो उसके बुरे असर से बचने के लिए यहां बताया जा रहा है एक सरल उपाय, जो आप घर में भी अपना सकते हैं। यह उपाय है - शनि चालीसा का पाठ। 
शनिदेव की प्रतिमा या तस्वीर पर गंध, अक्षत, फूल, काले तिल व शनि प्रतिमा पर तेल चढ़ाकर शनि की प्रसन्नता की कामना के साथ इस शनि चालीसा का पाठ करें-

।। दोहा ।।

जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।

दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल।। 

जय जय श्री शनिदेव प्रभु,सुनहु विनय महाराज। 

करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज।।


जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ।।

चारि भुजा, तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छवि छाजै ।।

परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ।।

कुण्डल श्रवण चमाचम चमके । हिये माल मुक्तन मणि दमके ।।

कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं आरिहिं संहारा ।।

पिंगल, कृष्णों, छायानन्दन । यम, कोणस्थ, रौद्र, दुख भंजन ।।

सौरी, मन्द, शनि, दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ।।

जा पर प्रभु प्रसन्न है जाहीं । रंकहुं राव करैंक्षण माहीं ।।

पर्वतहू तृण होई निहारत । तृण हू को पर्वत करि डारत ।। 

राज मिलत बन रामहिं दीन्हो । कैकेइहुं की मति हरि लीन्हों ।। 

बनहूं में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चतुराई ।। 

लखनहिं शक्ति विकल करि डारा । मचिगा दल में हाहाकारा ।। 

रावण की गति-मति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ।। 

दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ।। 

नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ।। 

हार नौलाखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवायो तोरी ।। 

भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो ।। 

विनय राग दीपक महं कीन्हों । तब प्रसन्न प्रभु है सुख दीन्हों ।। 

हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरे डोम घर पानी ।। 

तैसे नल परदशा सिरानी । भूंजी-मीन कूद गई पानी ।। 

श्री शंकरहि गहयो जब जाई । पार्वती को सती कराई ।। 

तनिक विलोकत ही करि रीसा । नभ उडि़ गयो गौरिसुत सीसा ।। 

पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रौपदी होति उघारी ।। 

कौरव के भी गति मति मारयो । युद्घ महाभारत करि डारयो ।। 

रवि कहं मुख महं धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ।। 

शेष देव-लखि विनती लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ई ।। 

वाहन प्रभु के सात सुजाना । जग दिग्ज गर्दभ मृग स्वाना ।। 

जम्बुक सिंह आदि नखधारी । सो फल जज्योतिष कहत पुकारी ।। 

गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं ।। 

गर्दभ हानि करै बहु काजा । गर्दभ सिद्घ कर राज समाजा ।। 

जम्बुक बुद्घि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्रण संहारै ।। 

जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ।। 

तैसहि चारि चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चांदी अरु तामा ।। 

लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावै ।। 

समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्व सुख मंगल कारी ।। 

जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ।। 

अद्भुत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ।। 

जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ।।

पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ।। 

कहत रामसुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ।। 

।। दोहा ।।

पाठ शनिश्चर देव को, की हों विमल तैयार । 

करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ।।

गुड़हल के फूल का ऐसे करें उपयोग, ये बीमारियां जड़ से साफ हो जाएंगी



 

गुड़हल फूल न सिर्फ देखने में खूबसूरत होता है बल्कि इसमें छिपा है सेहत का खजाना। भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के अनुसार सफेद गुड़हल की जड़ों को पीस कर कई दवाएं बनाई जाती हैं। मेक्सिको में गुड़हल के सूखे फूलों को उबालकर बनाया गया पेय एगुआ डे जमाईका अपने रंग और तीखे स्वाद के लिये काफी लोकप्रिय है। आयुर्वेद में इस फूल के कई प्रयोग बताएं गए हैं आज हम भी आपको बताने जा रहे हैं कुछ ऐसे ही प्रयोग जिन्हें आजमाकर आप भी लाभ उठा सकते हैं।

- गुड़हल का शर्बत दिल और दिमाग को शक्ति प्रदान करता है तथा बुखार व प्रदर में भी लाभकारी होता है। यह शर्बत बनाने के लिए गुड़हल के सौ फूल लेकर कांच के पात्र में डालकर इसमें 20 नीबू का रस डालें व ढक दें। रात भर बंद रखने के बाद सुबह इसे हाथ से मसलकर कपड़े से इस रस को छान लें। इसमें 80 ग्राम मिश्री, 20 ग्राम गुले गाजबान का अर्क, 20 ग्राम अनार का रस, 20 ग्राम संतरे का रस मिलाकर मंद आंच पर पका लें। चाशनी शर्बत जैसी हो जाए तो उतारकर 2 रत्ती कस्तूरी, थोड़ा अम्बर, और केसर व गुलाब का अर्क मिलाएं शर्बत की तरह चिकित्सकीय निर्देशन में सेवन करें।- मुंह के छाले में गुड़हल के पत्ते चबाने से लाभ होता है।
- मैथीदाना, गुड़हल और बेर की पत्तियां पीसकर पेस्ट बना लें। इसे 15 मिनट तक बालों में लगाएं। इससे आपके बालों की जड़ें मजबूत होंगे और स्वस्थ भी।

- केश काला करने के लिए भृंगराज के पुष्प व गुड़हल के पुष्प भेड़ के दूध में पीसकर लोहे के पात्र में भरना चाहिए। सात दिन बाद इसे निकालकर भृंगराज को पंचाग के रस में मिलाकर गर्म कर रात को बालों पर लगाकर कपड़ा बांधना चाहिए। सुबह तक रखें और फिर सिर धोएं बाल काले हो जाते हैं।

- सतावरी के कंद का पावडर बनाकर आधा चम्मच दूध के साथ नियमित लें, इससे कैल्शियम की कमी नहीं होगी।

- गुड़हल के लाल फूल की 25 पत्तियां नियमित खाएं। ये डायबिटीज का पक्का इलाज है।

- 100 ग्राम, सतावरी पावडर- 100 ग्राम, शंखपुष्पी पावडर-100 ग्राम, ब्राह्मी पावडर- 50 ग्राम मिलाकर शहद या दूध के साथ लेने से बच्चों की बुद्धि तीव्र होती है।

परंपरा: क्या आप जानते हैं मंदिर में घंटी क्यों लगाते हैं?




हिंदू धर्म में देवालयों व मंदिरों के बाहर घंटियां या घडिय़ाल पुरातन काल से लगाए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि जिस मंदिर से घंटी या घडिय़ाल बजने की आवाज नियमित आती है, उसे जाग्रत देव मंदिर कहते हैं। उल्लेखनीय है कि सुबह-शाम मंदिरों में जब पूजा-आरती की जाती है तो छोटी घंटियों, घंटों के अलाव घडिय़ाल भी बजाए जाते हैं।
इन्हें विशेष ताल और गति से बजाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि घंटी बजाने से मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के देवता भी चैतन्य हो जाते हैं, जिससे उनकी पूजा प्रभावशाली तथा शीघ्र फल देने वाली होती है। स्कंद पुराण के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) था, घंटी या घडिय़ाल की ध्वनि से वही नाद निकलता है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है। घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है। धर्म शास्त्रियों के अनुसार जब प्रलय काल आएगा तब भी इसी प्रकार का नाद प्रकट होगा।
मंदिरों में घंटी या घडिय़ाल लगाने का वैज्ञानिक कारण भी है। जब घंटी बजाई जाती है तो उससे वातावरण में कंपन उत्पन्न होता है जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है। इस कंपन की सीमा में आने वाले जीवाणु, विषाणु आदि सुक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं तथा मंदिर का तथा उसके आस-पास का वातावरण शुद्ध बना रहता है।

जानिए, कौन से लोग होते है अच्छे, कौन होते हैं झूठे




हमने दुनियाभर में कई लोगों को देखा है जो बातें कुछ करते हैं और वास्तव में होते कुछ और ही हैं। ऐसे लोगों को तरह-तरह के नामों से पुकारा जाता है। वास्तव में हमारे धर्मग्रंथों में भी इस तरह के चरित्र वाले लोगों के लिए कई बातें कही गई हैं।
हिंदू धर्म में सबसे पवित्र और व्यवहारिक ज्ञान का भंडार माने जाने वाले ग्रंथ गीता में भी इस तरह के लोगों का उल्लेख किया गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि ऐसे लोग जो ऊपर से आत्म नियंत्रण का अभिनय करते हैं और मन ही मन उन्हीं विषयों के बारे में सोचते रहते हैं, ऐसे लोगों को मिथ्याचारी कहते हैं।
जो मनुष्य इंद्रियों को पूरी तरह से वश में करके उनसे मोह रहित हो जाए, अनासक्त हो जाए, वो मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ होता है।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।। गीता अध्याय 3, श्लोक 6
अर्थ - जो मूर्ख मनुष्य समस्त इंद्रियों को ऊपर से हठपूर्वक रोक कर मन से उन्हीं इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता है, ऐसा मनुष्य मिथ्याचारी कहलाता है।

दूसरी जगह भी आंदोलन हुए हैं उन्हें क्यों नहीं तलब किया : बैसला




 
जयपुर । गुर्जर आरक्षण पर हाईकोर्ट में तलब करने पर कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला ने कहा कि मैं एक चीज से हैरान हूं कि दूसरी जगह भी आंदोलन हुए हैं उन्हें क्यों नहीं तलब किया जा रहा है। यही बात अदालत में रखी गई कि कि ऐसा क्यों है? यह सही नहीं है। सबके साथ एक जैसा करो। आंदोलन भी होते हैं आंदोलन होते रहेंगे।
जहां किसी की आवाज नहीं सुनी जाती तो आंदोलन द्वारा उसका जवाब दिया जाता है। यह लोकतांत्रिक प्रावधान है। हमारे साथ ऐसा क्यों? एक समुदाय एक व्यक्ति पूरे समय, और लोगों ने भी रेल रोकी हैं जाम लगाए हैं, उनसे कुछ नहीं कहा गया। बैसला शकवार को हाईकोर्ट में पेश होने के बाद मीडिया से बातचीत कर रहे थे।

दो माह तक इंतजार करूंगा, संतुष्ट तभी जब संवैधानिक तरीके से आरक्षण मिल जाएगा :
पचास फीसदी के दायरे से बाहर आरक्षण देने के सवाल पर बैसला ने कहा कि ओबीसी आयोग की रिपोर्ट अभी देखी नहीं है। सरकार ने सिफारिश कर दी है। सरकार की घोषणा के बाद गुरुवार को हमने बैठक की थी। सरकार की सिफारिश पर अध्ययन और मंथन किया जाएगा। विधि विशेषज्ञों से राय ली जाएगी। इसके बाद हम विशाल महापंचायत करेंगे उसमें तय होगा कि आगे क्या रणनीति अपनानी है।
सरकार की सिफारिश से संतुष्ट होने के सवाल पर बैसला ने कहा कि दो माह इंतजार तो करो। वी हेव टू वेट एंड वाच। हम तो वाच कर रहे हैं। यह सरकार का दायित्व है कि वह रिपोर्ट हाईकोर्ट में रखे। अभी दो माह इसका इंतजार करूंगा। संतुष्टि तो तब होगी जब संवैधानिक तरीके से आरक्षण मिल जाएगा। मैं इस पर कायम हूं।
 

दिमाग का सूप पीने वाले आदमखोर को मिली उम्रकैद



दिमाग का सूप पीने वाले आदमखोर को मिली उम्रकैद
इलाहाबाद.  इलाहाबाद की एक अदालत ने आज नरपिशाच राजा कलंदर और उसके साले बछराज को उम्रकैद की सजा सुनाई है। दोनों पर 10-10 हजार रुपए का आर्थिक दंड भी लगा है। कोर्ट ने उसे पत्रकार धीरेंद्र सिंह समेत कई लोगों की हत्या का दोषी करार देते हुए इसे रेयरेस्ट ऑफ दी रेयर केस माना था। उसके खिलाफ यह केस करीब 12 साल से चल रहा था। 
 
बताते चलें कि पत्रकार की गला काटकर हत्या कर दी गई थी। उसकी लाश के टुकड़े कर उन्हें जंगल और नदी में फेंक दिया गया था। इस अपराध को अंजाम देने वाले राजा कलंदर की असलियत 2000 में लोगों के सामने आई, जब उसने एक पत्रकार की हत्या की थी। पत्रकार के घरवालों ने हत्या का संदेह जताया। पुलिस जांच के दौरान तत्कालीन जिला पंचायत सदस्य फूलन देवी के घर पहुंची। वहां से धीरेंद्र सिंह का सामान मिला था। राजा कलंदर फूलन का पति है, उसने पुलिस के सामने गुनाह कबूल कर लिया। 
 
राजा कलंदर के बारे में कहा जाता है कि उसे जो भी शख्स नापसंद होता था, उसे वह अपने फार्म हाउस या आस-पास की जगहों पर बुलाकर बेरहमी से क़त्ल कर देता था। लाश के टुकड़े-टुकड़े कर उसके कुछ हिस्से को फार्म हाउस में छिपा देता था। बाकी मध्य प्रदेश और यूपी के जंगलों, नदियों में फेंक देता था। इतना बेरहम था कि उसने कई लोगों को मारने के बाद उनकी खोपड़ी का मांस भी भूनकर खाया था। दिमाग को उबाल कर सूप पीता था। क़त्ल करने वाले लोगों की खोपड़ियों को वह फ़ार्म हाउस के एक पेड़ पर टांग देता था।

कुरान का सन्देश


Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...