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25 जनवरी 2013

१८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम


1857/58 का भारत का स्वाधीनता संग्राम








१८५७ के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को समर्पित भारत का डाकटिकट।
१८५७ का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रुप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ, और पूरे भारतीय साम्राज्य पर ब्रितानी ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चला।

भारत में ब्रितानी विस्तार का संक्षिप्त इतिहास

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रॉबर्ट क्लाईव के नेतृत्व में सन 1757 में प्लासी का युद्ध जीता। युद्ध के बाद हुई संधि में अंग्रेजों को बंगाल में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिल गया। सन 1764 में बक्सर का युद्ध जीतने के बाद अंग्रेजों का बंगाल पर पूरी तरह से अधिकार हो गया। इन दो युद्धों में हुई जीत ने अंग्रेजों की ताकत को बहुत बढ़ा दिया, और उनकी सैन्य क्षमता को परम्परागत भारतीय सैन्य क्षमता से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। कंपनी ने इसके बाद सारे भारत पर अपना प्रभाव फैलाना आरंभ कर दिया।
1857 के गदर के समय के भारतीय राज्य।
सन 1885 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सिन्ध क्षेत्र पर रक्तरंजित लडाई के बाद अधिकार कर लिया। सन १८३९ में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद कमजोर हुए पंजाब पर अंग्रेजों ने अपना हाथ बढा़या और सन 1848 में दूसरा अन्ग्रेज- सिख युद्ध हुआ। सन 1849 में कंपनी का पंजाब पर भी अधिकार हो गया। सन 1853 में आखरी मराठा पेशवा बाजी राव के दत्तक पुत्र नाना साहेब की पदवी छीन ली गयी और उनका वार्षिक खर्चा बंद कर दिया गया।
सन 1854 में बरार और सन 1856 में अवध को कंपनी के राज्य में मिला लिया गया।

विद्रोह के कारण

सन १८५७ के विद्रोह के विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सैनिक तथा सामाजिक कारण बताये जाते हैं।

वैचारिक मतभेद

कई इतिहासकारों का मानना है कि उस समय के जनमानस में यह धारणा थी कि, अंग्रेज उन्हें जबर्दस्ती या धोखे से ईसाई बनाना चाहते थे। यह पूरी तरह से गलत भी नहीं था, कुछ कंपनी अधिकारी धर्म परिवर्तन के कार्य में जुटे थे। हालांकि कंपनी ने धर्म परिवर्तन को स्वीकृति कभी नहीं दी। कंपनी इस बात से अवगत थी कि धर्म, पारम्परिक भारतीय समाज में विद्रोह का एक कारण बन सकता है। इससे पहले सोलहवीं सदी में भारत तथा जापान से पुर्तगालियों के पतन का एक कारण ये भी था कि उन्होंने जनता पर ईसाई धर्म बलात लादने का प्रयास किया था।
लॉर्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नाति, डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स के अन्तर्गत अनेक राज्य जैसे झाँसी, अवध, सतारा, नागपुर और संबलपुर को अंग्रेजी़ राज्य में मिला लिया गया और इनके उत्तराधिकारी राजा से अंग्रेजी़ राज्य से पेंशन पाने वाले कर्मचारी बन गये। शाही घराने, जमींदार और सेनाओं ने अपने आप को बेरोजगार और अधिकारहीन पाया। ये लोग अंग्रेजों के हाथों अपनी शर्मिंदगी और हार का बदला लेने के लिये तैयार थे। लॉर्ड डलहौजी के शासन के आठ वर्षों में दस लाख वर्गमील क्षेत्र को कंपनी के अधिकार मे ले लिया गया। इसके अतिरिक्त ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल सेना में बहुत से सिपाही अवध से भर्ती होते थे, वे अवध में होने वाली घटनाओं से अछूते नही रह सके। नागपुर के शाही घराने के आभूषणों की कलकत्ता में बोली लगायी गयी इस घटना को शाही परिवार के प्रति अनादर के रुप में देखा गया।
भारतीय, कंपनी के कठोर शासन से भी नाराज थे जो कि तेजी से फ़ैल रहा था और पश्चिमी सभ्य्ता का प्रसार कर रहा था। अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मु्सलमानों के उस समय माने जाने वाले बहुत से रिवाजो़ को गैरकानूनी घोषित कर दिया जो कि अंग्रेजों द्वारा असमाजिक माने जाते थे। इसमें सती प्रथा पर रोक लगाना शामिल था। यहां ध्यान देने योग्य बात यह् है कि सिखों ने यह बहुत पहले ही बंद कर दिया था और बंगाल के प्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय इस प्रथा को बंद करने के पक्ष में प्रचार कर रहे थे। इन कानूनों ने समाज के कुछ पक्षों मुख्यतः बंगाल मे क्रोध उत्पन्न कर दिया। अंग्रेजों ने बाल विवाह प्रथा को समाप्त किया तथा कन्या भ्रूण हत्या पर भी रोक लगायी। अंग्रेजों द्वारा ठगी की समाप्ती भी कि गई परन्तु यह सन्देह अभी भी बना हुआ है कि ठग एक धार्मिक समुदाय था या केवल साधारण डकैतों का समुदाय।
ब्रितानी न्याय व्यवस्था भारतीयों के लिये अन्यायपूर्ण मानी जाती थी। सन १८५३ में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री लौर्ड अब्रेडीन ने प्रशासनिक सेवा को भारतीयों के लिये खोल दिया परन्तु कुछ प्रबुद्ध भारतीयों के हिसाब से यह सुधार पर्याप्त नही था। कंपनी के अधिकारियों को भारतीयों के विरुद्ध न्यायालयों में अनेक अपीलों का अधिकार प्राप्त था। कंपनी भारतीयों पर भारी कर भी लगाती थी जिसे न चुकाने की स्थिति में उनकी संपत्ति अधिग्रहित कर ली जाती थी। कंपनी के आधुनिकीकरण के प्रयासों को पारम्परिक भारतीय समाज में सन्देह की दृष्टि से देखा गया। लोगो ने माना कि रेलवे जो बाम्बे से सर्वप्रथम चला एक दानव है और लोगो पर विपत्ती लायेगा।
परन्तु बहुत से इतिहासकारों का यह भी मानना है कि इन सुधारों को बढ़ा चढ़ा कर बताया गया है क्योंकि कंपनी के पास इन सुधारों को लागू करने के साधन नही थे और कलकत्ता से दूर उनका प्रभाव नगन्य था [3]

आर्थिक कारण

१८५७ के विद्रोह का एक प्रमुख कारण कंपनी द्वारा भारतीयों का आर्थिक शोषण भी था। कंपनी की नीतियों ने भारत की पारम्परिक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था। इन नीतियों के कारण बहुत से किसान, कारीगर, श्रमिक और कलाकार कंगाल हो गये। इनके साथ साथ जमींदारों और बडे किसानों की स्थिति भी बदतर हो गयी। सन १८१३ में कंपनी ने एक तरफा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली इसके अन्तर्गत ब्रितानी व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी, परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकी और भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को अकल्पनीय क्षति हुई।
रेल सेवा के आने के साथ ग्रामीण क्षेत्र के लघु उद्यम भी नष्ट हो गये। रेल सेवा ने ब्रितानी व्यापारियों को दूर दराज के गावों तक पहुंच दे दी। सबसे अधिक क्षति कपडा़ उद्योग (कपास और रेशम) को हुई। इसके साथ लोहा व्यापार, बर्तन, कांच, कागज, धातु, बन्दूक, जहाज और रंगरेजी के उद्योगों को भी बहुत क्षति हुई। १८ वीं और १९ वीं शताब्दी में ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और अनेक रोकों के चलते भारतीय निर्यात समाप्त हो गया। पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की कारण यह स्थिति और भी विषम हो गयी। साधारण जनता के पास खेती के अलावा कोई और साधन नही बचा।
खेती करने वाले किसानो की हालत भी खराब थी। ब्रितानी शासन के प्रारम्भ में किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया, जिन्होने लगान को बहुत बढा़ दिया और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानो का शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। कंपनी ने खेती के सुधार पर बहुत कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी के खर्चों को पूरा करने मे प्रयोग होता था। फसल के खराब होने की दशा में किसानो को साहूकार अधिक ब्याज पर कर्जा देते थे और अनपढ़ किसानो कई तरीकों से ठगते थे। ब्रितानी कानून व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानो को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था।
इन समस्याओं के कारण समाज के हर वर्ग में असन्तोष व्याप्त था।

राजनैतिक कारण

सन १८४८ और १८५६ के बीच लार्ड डलहोजी ने डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स के कानून के अन्तर्गत अनेक राज्यों पर अधिकार कर लिया। इस सिद्धांत अनुसार कोई राज्य, क्षेत्र या ब्रितानी प्रभाव का क्षेत्र कंपनी के अधीन हो जायेगा, यदि क्षेत्र का राजा निसन्तान मर जाता है या शासक कंपनी की दृष्टि में अयोग्य साबित होता है। इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए लार्ड डलहोजी और उसके उत्तराधिकारी लार्ड कैन्निग ने सतारा,नागपुर,झाँसी,अवध को कंपनी के शासन में मिला लिया। कंपनी द्वारा तोडी गय़ी सन्धियों और वादों के कारण कंपनी की राजनैतिक विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लग चुका था। सन १८४९ में लार्ड डलहोजी की घोषणा के अनुसार बहादुर शाह के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोड़ना पडेगा और शहर के बाहर जाना होगा और सन १८५६ में लार्ड कैन्निग की घोषणा कि बहादुर शाह के उत्तराधिकारी राजा नहीं कहलायेंगे ने मुगलों को कंपनी के विद्रोह में खडा कर दिया।

सिपाहियों की आशंका

सिपाही मूलत: कंपनी की बंगाल सेना मे काम करने वाले भारतीय मूल के सैनिक थे। बम्बई, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेन्सी की अपनी अलग सेना और सेनाप्रमुख होता था। इस सेना में ब्रितानी सेना से अधिक सिपाही थे। सन १८५७ में इस सेना मे २,५७,००० सिपाही थे। बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी की सेना मे अलग अलग क्षेत्रो के लोग होने की कारण ये सेनाएं विभिन्नता से पूर्ण थी और इनमे किसी एक क्षेत्र के लोगो का प्रभुत्व नही था। परन्तु बंगाल प्रेसीडेन्सी की सेना मे भर्ती होने वाले सैनिक मुख्यत: अवध और गन्गा के मैदानी इलाको के भूमिहार राजपूत और ब्राह्मण थे। कंपनी के प्रारम्भिक वर्षों में बंगाल सेना में जातिगत विशेषाधिकारों और रीतिरिवाजों को महत्व दिया जाता था परन्तु सन १८४० के बाद कलकत्ता में आधुनिकता पसन्द सरकार आने के बाद सिपाहियों में अपनी जाति खोने की आशंका व्याप्त हो गयी [4]। सेना में सिपाहियों को जाति और धर्म से सम्बन्धित चिन्ह पहनने से मना कर दिया गया। सन १८५६ मे एक आदेश के अन्तर्गत सभी नये भर्ती सिपाहियों को विदेश मे कुछ समय के लिये काम करना अनिवार्य कर दिया गया। सिपाही धीरे-धीरे सेना के जीवन के विभिन्न पहलुओं से असन्तुष्ट हो चुके थे। सेना का वेतन कम था और अवध और पंजाब जीतने के बाद सिपाहियों का भत्ता भी समाप्त कर दिया गया था। एनफ़ील्ड बंदूक के बारे में फ़ैली अफवाहों ने सिपाहियों की आशन्का को और बढा़ दिया कि कंपनी उनकी धर्म और जाति परिवर्तन करना चाहती है।

एनफ़ील्ड बंदूक

विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ। सिपाहियों को पैटऱ्न १८५३ एनफ़ील्ड बंदूक दी गयीं जो कि ०.५७७ कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग मे लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले मे शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक मे गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पडता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पडता था। कारतूस का बाहरी आवरण मे चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी।
सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस मे लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। यह हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों दोनो की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। ब्रितानी अफ़सरों ने इसे अफ़वाह बताया और सुझाव दिया कि सिपाही नये कारतूस बनाये जिसमे बकरे या मधुमक्क्खी की चर्बी प्रयोग की जाये। इस सुझाव ने सिपाहियों के बीच फ़ैली इस अफ़वाह को और पुख्ता कर दिया। दूसरा सुझाव यह दिया गया कि सिपाही कारतूस को दांतों से काटने की बजाय हाथों से खोलें। परंतु सिपाहियों ने इसे ये कहते हुए अस्विकार कर दिया कि वे कभी भी नयी कवायद को भूल सकते हैं और दांतों से कारतूस को काट सकते हैं।
तत्कालीन ब्रितानी सेना प्रमुख (भारत) जार्ज एनसन ने अपने अफ़सरों की सलाह को दरकिनार हुए इस कवायद और नयी बंदूक से उत्पन्न हुई समस्या को सुलझाने से

अफ़वाहें

ऐक और अफ़वाह जो कि उस समय फ़ैली हुई थी, कंपनी का राज्य सन १७५७ मे प्लासी का युद्ध से प्रारम्भ हुआ था और सन १८५७ में १०० वर्षों बाद समाप्त हो जायेगा। चपातियां और कमल के फ़ूल भारत के अनेक भागों में वितरित होने लगे। ये आने वाले विद्रोह के लक्ष्ण थे।

युद्ध का प्रारम्भ

विद्रोह प्रारम्भ होने के कई महीनो पहले से तनाव का वातावरण बन गया था और कई विद्रोहजनक घटनायें घटीं। २४ जनवरी १८५७ को कलकत्ता के निकट आगजनी की कयी घटनायें हुई। २६ फ़रवरी १८५७ को १९ वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री ने नये कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया। रेजीमेण्ट् के अफ़सरों ने तोपखाने और घुडसवार दस्ते के साथ इसका विरोध किया पर बाद में सिपाहियों की मांग मान ली।

मंगल पाण्डेय

मंगल पाण्डेय ३४ वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री मे एक सिपाही थे। २९ मार्च, १८५७ को बैरकपुर परेड मैदान कलकत्ता के निकट मंगल पाण्डेय ने रेजीमेण्ट के अफ़सर लेफ़्टीनेण्ट बाग पर हमला कर के उसे घायल कर दिया। जनरल जान हेएरसेये के अनुसार मंगल पाण्डेय किसी प्रकार के धार्मिक पागलपन मे थे जनरल ने जमादार ईश्वरी प्रसाद को मंगल पांडेय को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया पर ज़मीदार ने मना कर दिया। सिवाय एक सिपाही शेख पलटु को छोड़ कर सारी रेजीमेण्ट ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार करने से मना कर दिया। मंगल पाण्डेय ने अपने साथीयों को खुलेआम विद्रोह करने के लिये कहा पर किसी के ना मानने पर उन्होने अपनी बंदूक से अपनी प्राण लेने का प्रयास करी। परन्तु वे इस प्रयास में केवल घायल हुये। ६ अप्रैल, १८५७ को मंगल पाण्डेय का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और ८ अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी।
ज़मीदार ईश्वरी प्रसाद को भी मृत्यु दंड दे दिया गया और उसे भी २२ अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी। सारी रेजीमेण्ट को समाप्त कर दिया गया और सिपाहियों को निकाल दिया गया। सिपाही शेख पलटु की पदोन्नति कर बंगाल सेना में ज़मीदार बना दिया गया।
अन्य रेजीमेण्ट के सिपाहियों को यह दंड बहुत ही कठोर लगा। कई ईतिहासकारों के अनुसार रेजीमेण्ट को समाप्त करने और सिपाहियों को बाहर निकालने ने विद्रोह के प्रारम्भ होने मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, असंतुष्ट सिपाही बदला लेने की इच्छा के साथ अवध लौटे और विद्रोह ने उने यह अवसर दे दिया।
अप्रैल के महीने में आगरा, इलाहाबाद और अंबाला शहरों मे भी आगजनी की घटनायें हुयीं।

मेरठ और दिल्ली

मेरठ एक दूसरा बडा सैनिक अड्डा था जहां २,३५७ भारतीय, २,०३८ ब्रितानी सिपाही, १२ ब्रितानी सिपाहियों द्वारा सन्चालित तोपें उपस्थित थीं। बंगाल सेना में असन्तोष की बात सभी लोग उस समय भलीभान्ती जानते थे, फ़िर भी २४ अप्रैल को ३ बंगाल लाइट कैवलरी (घुडसवार दस्ता) के सेनानायक लैफ़्टिनेण्ट-कर्नल जार्ज कार्मिशैल स्मिथ ने अपने ९० सिपाहियों को परेड़ करने और गोलाबारी का अभ्यास करने को कहा। पांच को छोड़ कर सभी सिपाहियों ने परेड करने और कारतूस लेने से मना कर दिया। ९ मई को ८५ सिपाहियों का सैनिक अदालत द्वारा कोर्ट मार्शल कर दिया गया, अधिकतर सिपाहियों को १० वर्ष के कठोर कारावास का दंड सुनाया गया। ११ सिपाही जिनकी आयु कुछ कम थी उन्हें ५ वर्ष का दंड सुनाया हया। बंदी सिपाहियों को बेडि़यों में बाँधकर और वर्दी उतार कर सेना के सामने परेड़ कराई गयी। इसके लिये बंदी सिपाहियों ने अपने साथी सैनिकों को समर्थन न करने के लिये भी दोषी ठहराया। सबसे ज्यदा योगदान कोतवाल धन सिन्ह गुर्जर का था यहा कमान उनके हाथ मे रही|
अगला दिन रविवार का था, इस दिन अधिकतर ईसाई आराम और पूजा करते थे। कुछ भारतीय सिपाहियों ने ब्रितानी अफ़सरों को, बंदी सिपाहियों को जबरन छुड़ाने की योजना का समाचार दिया, परंतु बडे अधिकारियों ने इस पर कोइ ध्यान नही दिया। मेरठ शहर में भी अशान्ति फ़ैली हुयी थी। बाज़ार मे कई विरोध प्रदर्शन हुए थे और आगजनी की घटनायें हुयी थी। शाम को बहुत से यूरोपिय अधिकारी चर्च जाने को तैयार हो रहे थे, जबकि बहुत से यूरोपिय सैनिक छुट्टी पर थे और मेरठ के बाज़ार या कैंटीन गये हुए थे। भारतीय सिपाहियों ने ३ बंगाल लाइट कैवलरी के नेत्रत्व में विद्रोह कर दिया। कनिष्ठ अधिकारियों ने विद्रोह को दबाने का प्रयास किया पर वे सिपाहियों द्वारा मारे गये। यूरोपिय अधिकारीयों और असैनिकों के घरों पर भी हमला हुआ, और ४ असैनिक, ८ महिलायें और ८ बच्चे मारे गये। छुट्टी पर गये सिपाहियों ने बाज़ार में भीड पर भी हमला किया। सिपाहियों ने अपने ८५ बन्दी साथियों और ८०० अन्य बंदियों को भी छुडा लिया।[5]
कुछ सिपाहियों ने (मुख्य्त: ११ बंगाल नेटिव ईन्फ़ैंट्री) विद्रोह करने से पहले विश्वस्नीय अधिकारियों और उन्के परिवारों को सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दिया। [6] कुछ अधिकारी और उनके परिवार रामपुर बच निकले और उन्होने रामपुर के नवाब के यहां शरण ली। ५० भारतीय असैनिक (अधिकारियों के नौकर जिन्होने अपने मालिको को बचाने या छुपाने का प्रयास किया) भी विद्रोहियों द्वारा मारे गये।[7] नर संहार की अतिश्योक्ति पूर्ण कहानियों और मरने वालों की संख्या ने कंपनी को असैनिक भारतीय और विद्रोहियों के दमन का एक बहाना दे दिया।
वरिष्ठ कंपनी अधिकारी, मुख्य्त: मेजर-जनरल हेविट्ट जो कि सेना के प्रमुख थे और ७० वर्ष के थे प्रतिक्रिया में धीमें रहे। ब्रितानी सैनिक (६० राईफ़लों और यूरोपिय सैनिकों द्वारा संचालित बंगाल तोपखाना ) आगे बड़े परंतु उन्हें विद्रोही सिपाहियों से लडने का कोई आदेश नही मिला और वे केवल अपने मुख्यालय और तोपखाने की सुरक्षा ही कर सके। ११ मई की सुबह को जब वे लड़ने को तैयार हुए तब तक विद्रोही सिपाही दिल्ली की ओर जा चुके थे।
उसी सुबह ३ बंगाल लाइट कैवलरी दिल्ली पंहुची। उन्होने बहादुर शाह ज़फ़र से उनका नेतृत्व करने को कहा। बहादुर शाह ने उस समय कुछ नहीं कहा पर किले में उपस्थित अन्य लोगो ने विद्रोहीयों का साथ दिया। दिन में विद्रोह दिल्ली में फ़ैल गया। बहुत से यूरोपिय अधिकारी, उनके परिवार, भारतीय धर्मांतरित ईसाई और व्यापारियों पर सिपाहियों और दंगाईयों द्वारा भी हमले हुए। लगभग ५० लोगों को बहादुर शाह के नौकरों द्वारा महल के बाहर मार दाला गया।[8]
दिल्ली के पास ही बंगाल नेटिव ईन्फ़ैंट्री की तीन बटालियन उपस्थित थी, बटालियन के कुछ दस्ते तुरन्त ही विद्रोहियों के साथ मिल गये और बाकियों ने विद्रोहियो पर वार करने से मना कर दिया। दोपहर मे नगर में एक भयानक धमाका सुनायी पडा। नगर में बने हुए शस्त्रागार को बचाने में तैनात ९ ब्रितानी अधिकारियों ने विद्रोही सिपाहियों और अपनी ही सुरक्षा में लगे सिपाहियों पर गोलीबारी की। परंतु असफ़ल होने पर उन्होने शस्त्रागार को उडा दिया। ९ में से ६ अधिकारी बच गये पर उस धमाके से उस सड़क पर रहने वाले कई लोगो की मृत्यु हो गयी।[9] दिल्ली में हो रही इन घटनाओं का समाचार सुन कर नगर के बाहर तैनात सिपाहियों ने भी खुला विद्रोह कर दिया।
भाग रहे यूरोपिय अधिकारी और असैनिक उत्तरी दिल्ली के निकट फ़्लैग स्टाफ़ बुर्ज के पास एकत्रित हुए। यहां बहुत से तार संचालक ब्रितानी मुख्यालय को हो रही घटनाओं का समाचार दे रहे थे। जब ये स्पष्ट हो गया कि कोई सहायता नही मिलेगी तो वे करनाल की ओर बढे़। रास्ते में कुछ लोगो की सहायता ग्रामीणों ने की और कुछ यूरोपियों को लूटा औरा मारा भी गया।
अगले दिन बहादुर शाह ने कई वर्षों बाद अपना पहला अधिकारिक दरबार लगाया। बहुत से सिपाही इसमें सम्मिलित हुए। बहादुर शाह इन घटनाओं से चिन्तित थे पर अन्तत: उन्होने सिपाहियों को अपना समर्थन और नेतृत्व देने की घोषणा कर दी।

समर्थन तथा विरोध

दिल्ली में हुयी घटनाओं का समाचार तेजी से फ़ैला और इसने विभिन्न जिलों में सिपाहियों के बीच असन्तोष को और फ़ैला दिया। इन में बहुत सी घटनाओं का कारण ब्रितानी अधिकारियों का व्यवहार था जिसने अव्यवस्था को फ़ैलाया। दिल्ली पर हुए अधिकार की बात तार से जानने के बाद बहुत से कंपनी अधिकारी शीघ्रता में अपने परिवार और नौकरों के साथ सुरक्षित स्थानों पर चले गये। दिल्ली से १६० कि.मी. दूर आगरा में लगभग ६००० असैनिक किले पर इकठ्ठा हो गये।[10] जिस शीघ्रता में असैनिक अपना पद छोड कर भागे उससे विद्रोही सैनिकों उन क्षेत्रों को बहुत बल मिला। यद्यपि बाकी अधिकारी अपने पदों पर तैनात थे पर इतने कम लोगों के कारण किसी प्रकार की व्यवस्था बनाना असम्भव था। बहुत से अधिकारी विद्रोहियों और अपराधियों द्वारा मारे गये।
सैनिक अधिकारीयों ने भी संयोजित तरीके से कार्य नहीं किया। कुछ अधिकारीयों ने सिपाहियों पर विश्वास किया परन्तु कुछ ने भविष्य के विद्रोह से बचने के लिये सिपाहियों को निशस्त्र करना चाहा। बनारस और इलाहाबाद में निशस्त्रीकरण में गड़बड़ होने के कारण वहां भी स्थानीय विद्रोह प्रारम्भ हो गया।[11]
यद्यपि आन्दोलन बहुत व्यापक था परन्तु विद्रोहियों में एकता का अभाव था। जबकि बहादुर शाह ज़फ़र दिल्ली के तखत पर बिठा दिये गये थे, विद्रोहियों का एक भाग मराठों को भी सिन्हासन पर बिठाना चाहता था। अवध निवासी भी नवाब की रियासत को बनाये रखना चाहते थे।
मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ खैराबादी और अहमदुल्लाह शाह जैसे मुस्लिम नेताओं द्वारा जिहाद [12] का आह्वान किया गया। इसका विशेषरुप से मुसलिम कारीगरों द्वारा समर्थन किया गया। इस के कारण अधिकारीयों को लगा कि विद्रोह के मुखिया मुसलिमों के बीच हैं। अवध में सुन्नी मुसलिमों ने इस जिहाद का अधिक समर्थन नहीं किया क्योंकि वो इसे मुख्य रूप से शिया आन्दोलन के रूप में देखते थे। कुछ मुस्लिम नेता जैसे आगा खान ने इस विद्रोह का विरोध किया जिसके लिये ब्रितानी सरकार ने उनका सम्मान भी किया। मुजफ़्फ़र नगर जिले के पास स्थित थाना नगर में सुन्नियों ने हाजी इमादुल्लाह को अपना अमीर घोषित कर दिया। मई १८५७ में हाजी इमादुल्लाह की सेना और ब्रितानी सैनिकों के बीच शामली की लड़ाई हुयी।
पंजाब और उत्तरी-पश्चिमी प्रोविंस (नौर्थ-वेस्ट प्रोविंस) से सिख और पठान सिपाहियों ने ब्रितानी शासन का समर्थन किया और दिल्ली पर अधिकार करने में सहायता की। [13][14] कई इतिहासकारों का ये मत है कि सिख सिपाही आठ वर्ष पहले हुई हार का बदला लेना चाहते थे जिसमें बंगाल और मराठा सिपाहियों ने ब्रितानी सैनिकों की सहायता की थी।[15]
१८५७ में बंगाल सेना में कुल ८६,००० सैनिक थे, जिसमें १२,००० य़ूरोपिय, १६,००० पंजाबी और १,५०० गुरखा सैनिक थे। जबकी भारत की तीनो सेनाओं में कुल ३,११,००० स्थानिय सैनिक, ४०,१६० य़ूरोपिय सैनिक और ५,३६२ अफ़सर थे। बंगाल सेना की ७५ में से ५४ रेजिमेण्ट ने विद्रोह कर दिया।[16] इनमे से कुछ को नष्ट कर दिया गया और कुछ अपने सिपाहियों के साथ अपने घरों की ओर चली गयी। सभी बची हुयीं रेजिमेण्ट को समाप्त कर दिया गया और निशस्त्र कर दिया गया। बंगाल सेना की दसों घुड़सवार रेजिमेण्टों ने विद्रोह कर दिया।
बंगाल सेना में २९ अनियमित घुड़सवार रेजिमेण्ट और ४२ अनियमित पैदल रेजिमेण्ट भी थीं। इनमे मुख्य रूप से अवध के सिपाही थे जिन्होने संयुक्त रूप से विद्रोह कर दिया। दूसरा मुख्य भाग ग्वालियर के सैनिको का था जिसने विद्रोह किया परन्तु ग्वालियर के राजा ब्रितानी शासन के साथ थे। बाकी अनियमित सेना विभिन्न स्रोतों से ली गयी थी और वह उस समय के समाज की मुख्यधारा से अलग थी। मुख्य रूप से तीन धड़ों क्षे ने कंपनी का साथ दिया, इनमे तीन गुरखा, छः में से पांच सिख पैदल रेजिमेण्टों और हाल ही में बनायी गयी पंजाब अनियमित सेना की छः पैदल तथा छः घुड़सवार दस्ते शामिल थे।[17][18]
१ अप्रेल १८५८ को बंगाल सेना में कंपनी के वफ़ादार भारतीय सैनिकों की संख्या ८०,०५३ थी।[19][20] ईसमें बहुत संख्या में वो सैनिक थे जिनको विद्रोह के बाद भारी मात्रा में पंजाब और उत्तरी-पश्चिमी प्रोविंस (नौर्थ-वेस्ट प्रोविंस) से सेना मे भरती किया गया था।
बम्बई सेना (बांबे आर्मी) की २९ रेजिमेण्ट में से ३ रेजिमेण्ट ने विद्रोह किया और मद्रास सेना की किसी रेजिमेण्ट ने विद्रोह नही किया यद्यपि ५२ रेजिमेण्ट के कुछ सैनिकों ने बंगाल में काम कर्ने से मना कर दिया।[21] कुछ क्षेत्रों को छोड कर अधिकतर दक्षिण भारत शान्त रहा। अधिकतर राज्यों ने इस विद्रोह मे भाग नही लिया क्योंकी इस क्षेत्र का अधिकतर भाग निज़ाम और मैसूर रजवाडे द्वारा शासित था और वो ब्रितानी शासन के अन्तर्गत नहीं आते थे।

विद्रोह

प्रारम्भिक अवस्था

बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने आप को भारत का शहंशाह घोषित कर दिया। बहुत से इतिहासकारों का ये मत है कि उनको सिपाहियों एवं दरबारियों द्वारा इस के लिये बाध्य किया गया। बहुत से असैनिक, शाही तथा प्रमुख व्यकित्यों ने शहंशाह के प्रति राजभक्ति की शपथ ली। शहंशाह ने अपने नाम के सिक्के जारी किये जो कि अपने को राजा घोषित करने की एक प्राचीन परम्परा थी। परन्तु इस घोषणा ने पंजाब के सिखों को विद्रोह से अलग कर दिया। सिख नहीं चाहते थे की मुगल शासकों से इतनी लडाईयां लडने के बाद शासन मुगलों के हाथ में चला जाये।
बंगाल इस पूरी अवधि के दौरान शांत रहा। विद्रोही सैनिकों ने कंपनी की सेना को महत्वपूर्ण रुप से पीछे धकेल दिया और हरियाणा, बिहार, मध्य भारत और उत्तर भारत में महत्वपूर्ण शहरों पर कब्जा कर लिया। जब कंपनी की सेना ने संगठित हो कर वापस हमला किया तो केन्द्रिय कमान एवं नियंत्रण के अभाव में विद्रोही सैनिक मुकाबला कर्ने में अक्षम हो गये। अधिकतर लडायियों में सैनिकों को निर्देश के लिये राजाओं और रजवाडों की तरफ़ देखना पडा। यद्यपि ईनमे से कई स्वाभाविक नेता साबित हुए पर बहुत से स्वार्थी और अयोग्य साबित हुए।

मेरठ में घटनाओं के बाद बहुत जल्द, अवध (अवध के रूप में भी जाना जाता है, आधुनिक दिन उत्तर प्रदेश में), जो बमुश्किल एक साल पहले कब्जा कर लिया था की राज्य में विद्रोह भड़क उठी. लखनऊ में ब्रिटिश आयुक्त निवासी सर हेनरी लॉरेंस, रेजीडेंसी परिसर के अंदर अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए पर्याप्त समय था. कंपनी बलों वफादार सिपाही सहित कुछ 1700 पुरुषों, गिने. 'विद्रोहियों के हमले असफल रहे थे, और इसलिए वे परिसर में तोपखाने और बंदूक आग की बौछार शुरू कर दिया. लॉरेंस पहली हताहतों की थी. विद्रोहियों ने विस्फोटकों से दीवारों को भंग करने और उन्हें भूमिगत सुरंगों कि भूमिगत करीबी मुकाबला करने के लिए नेतृत्व के माध्यम से बाईपास की कोशिश की. घेराबंदी के 90 दिनों के बाद, कंपनी बलों की संख्या 300 वफादार सिपाहियों, 350 ब्रिटिश सैनिकों और 550 गैर - लड़ाकों के लिए कम हो गई थी.
25 सितंबर Cawnpore से सर हेनरी हैवलॉक के आदेश के तहत राहत स्तंभ और सर जेम्स Outram (जो सिद्धांत में अपने बेहतर था) के साथ एक संक्षिप्त अभियान में जो संख्यानुसार छोटे स्तंभ एक श्रृंखला में विद्रोही सेनाओं को हराया में अपनी तरह से लखनऊ लड़े तेजी से बड़ी लड़ाई की. यह लखनऊ के पहले राहत के रूप में जाना बन गया है, के रूप में इस बल को मजबूत करने के लिए घेराबंदी को तोड़ने के लिए या खुद को मुक्त कर देना पर्याप्त नहीं था, और इतना करने के लिए चौकी में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया था. अक्तूबर में एक और बड़ा है, के तहत सेना के नए कमांडर इन चीफ, सर कॉलिन कैम्पबेल, अंत में चौकी को राहत देने में सक्षम था और 18 नवंबर को, वे शहर के भीतर बचाव एन्क्लेव खाली, महिलाओं और बच्चों को पहले छोड़ने. वे तो Cawnpore, जहां वे Tantya टोपे द्वारा एक प्रयास Cawnpore की दूसरी लड़ाई में शहर हटा देना पराजित करने के लिए एक व्यवस्थित वापसी का आयोजन किया.

बरेली

khan bahadur मेरत मे १०मई १८५७ को -२१ दिन पहले- क्रान्ति का बिगुल बज गया | बरेली मे तब ८ न०देशी सवार, १८ और ६८ न० की पैदल सेना थी | इस सेना ने ३१ मई को विद्रोह किया |यह रविवार क दिन था |सुबह दस बजे एक तोप दगी| यह क्रान्तिक सन्केत था | सेना बैरको से बाहर निकल आई|

१८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

१८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

१८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

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1857/58 का भारत का स्वाधीनता संग्राम
Indian Rebellion of 1857.jpg
1857-59' के दौरान हुये भारतीय विद्रोह के प्रमुख केन्द्रों: मेरठ, दिल्ली, कानपुर , लखनऊ, झाँसी, और ग्वालियर को दर्शाता सन 1912 का नक्शा।
तिथि 10 मई 1857
स्थान भारत (cf. 1857)[1]
परिणाम विद्रोह का दमन,
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत,
नियंत्रण ब्रिटिश ताज के हाथ में।
क्षेत्रीय
बदलाव
पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी के क्षेत्रों को मिलाकर बना भारतीय साम्राज्य, इन क्षेत्रों मे से कुछ तो स्थानीय राजाओं को लौटा दिये गये जबकि कईयों को ब्रिटिश ताज द्वारा जब्त कर लिया गया।
योद्धा
Flag of the Mughal Empire.svg मुग़ल साम्राज्य
Flag of the British East India Company (1801).svg ईस्ट इंडिया कंपनी सिपाही
7 भारतीय रियासतें
Flag of the United Kingdom ब्रिटिश सेना
Flag of the British East India Company (1801).svg ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाही
देशी उपद्रवी
और ईस्ट इंडिया कंपनी के ब्रिटिश सैनिक Flag of the United Kingdom बंगाल प्रेसीडेंसी के ब्रिटिश नागरिक स्वयंसेवक
21 रियासतें
Pre 1962 Flag of Nepal.png नेपाल की राजशाही
क्षेत्र के अन्य छोटे राज्य
सेनानायक
Flag of मुग़ल साम्राज्य बहादुर शाह द्वितीय
नाना साहेब
Flag of मुग़ल साम्राज्य मिर्ज़ा मुग़ल
Flag of the British East India Company (1801).svg बख़्त खान
रानी लक्ष्मीबाई
Flag of the British East India Company (1801).svg तात्या टोपे
अवध ध्वज.gif बेगम हजरत महल
प्रधान सेनापति, भारत:
Flag of the United Kingdom जॉर्ज एनसोन (मई 1857 से)
Flag of the United Kingdom सर पैट्रिक ग्रांट
Flag of the United Kingdom कॉलिन कैंपबैल (अगस्त 1857 से)
Pre 1962 Flag of Nepal.png जंग बहादुर[2]
१८५७ के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को समर्पित भारत का डाकटिकट।
१८५७ का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रुप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ, और पूरे भारतीय साम्राज्य पर ब्रितानी ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चला।

अनुक्रम

भारत में ब्रितानी विस्तार का संक्षिप्त इतिहास

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रॉबर्ट क्लाईव के नेतृत्व में सन 1757 में प्लासी का युद्ध जीता। युद्ध के बाद हुई संधि में अंग्रेजों को बंगाल में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिल गया। सन 1764 में बक्सर का युद्ध जीतने के बाद अंग्रेजों का बंगाल पर पूरी तरह से अधिकार हो गया। इन दो युद्धों में हुई जीत ने अंग्रेजों की ताकत को बहुत बढ़ा दिया, और उनकी सैन्य क्षमता को परम्परागत भारतीय सैन्य क्षमता से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। कंपनी ने इसके बाद सारे भारत पर अपना प्रभाव फैलाना आरंभ कर दिया।
1857 के गदर के समय के भारतीय राज्य।
सन 1885 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सिन्ध क्षेत्र पर रक्तरंजित लडाई के बाद अधिकार कर लिया। सन १८३९ में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद कमजोर हुए पंजाब पर अंग्रेजों ने अपना हाथ बढा़या और सन 1848 में दूसरा अन्ग्रेज- सिख युद्ध हुआ। सन 1849 में कंपनी का पंजाब पर भी अधिकार हो गया। सन 1853 में आखरी मराठा पेशवा बाजी राव के दत्तक पुत्र नाना साहेब की पदवी छीन ली गयी और उनका वार्षिक खर्चा बंद कर दिया गया।
सन 1854 में बरार और सन 1856 में अवध को कंपनी के राज्य में मिला लिया गया।

विद्रोह के कारण

सन १८५७ के विद्रोह के विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सैनिक तथा सामाजिक कारण बताये जाते हैं।

वैचारिक मतभेद

कई इतिहासकारों का मानना है कि उस समय के जनमानस में यह धारणा थी कि, अंग्रेज उन्हें जबर्दस्ती या धोखे से ईसाई बनाना चाहते थे। यह पूरी तरह से गलत भी नहीं था, कुछ कंपनी अधिकारी धर्म परिवर्तन के कार्य में जुटे थे। हालांकि कंपनी ने धर्म परिवर्तन को स्वीकृति कभी नहीं दी। कंपनी इस बात से अवगत थी कि धर्म, पारम्परिक भारतीय समाज में विद्रोह का एक कारण बन सकता है। इससे पहले सोलहवीं सदी में भारत तथा जापान से पुर्तगालियों के पतन का एक कारण ये भी था कि उन्होंने जनता पर ईसाई धर्म बलात लादने का प्रयास किया था।
लॉर्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नाति, डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स के अन्तर्गत अनेक राज्य जैसे झाँसी, अवध, सतारा, नागपुर और संबलपुर को अंग्रेजी़ राज्य में मिला लिया गया और इनके उत्तराधिकारी राजा से अंग्रेजी़ राज्य से पेंशन पाने वाले कर्मचारी बन गये। शाही घराने, जमींदार और सेनाओं ने अपने आप को बेरोजगार और अधिकारहीन पाया। ये लोग अंग्रेजों के हाथों अपनी शर्मिंदगी और हार का बदला लेने के लिये तैयार थे। लॉर्ड डलहौजी के शासन के आठ वर्षों में दस लाख वर्गमील क्षेत्र को कंपनी के अधिकार मे ले लिया गया। इसके अतिरिक्त ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल सेना में बहुत से सिपाही अवध से भर्ती होते थे, वे अवध में होने वाली घटनाओं से अछूते नही रह सके। नागपुर के शाही घराने के आभूषणों की कलकत्ता में बोली लगायी गयी इस घटना को शाही परिवार के प्रति अनादर के रुप में देखा गया।
भारतीय, कंपनी के कठोर शासन से भी नाराज थे जो कि तेजी से फ़ैल रहा था और पश्चिमी सभ्य्ता का प्रसार कर रहा था। अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मु्सलमानों के उस समय माने जाने वाले बहुत से रिवाजो़ को गैरकानूनी घोषित कर दिया जो कि अंग्रेजों द्वारा असमाजिक माने जाते थे। इसमें सती प्रथा पर रोक लगाना शामिल था। यहां ध्यान देने योग्य बात यह् है कि सिखों ने यह बहुत पहले ही बंद कर दिया था और बंगाल के प्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय इस प्रथा को बंद करने के पक्ष में प्रचार कर रहे थे। इन कानूनों ने समाज के कुछ पक्षों मुख्यतः बंगाल मे क्रोध उत्पन्न कर दिया। अंग्रेजों ने बाल विवाह प्रथा को समाप्त किया तथा कन्या भ्रूण हत्या पर भी रोक लगायी। अंग्रेजों द्वारा ठगी की समाप्ती भी कि गई परन्तु यह सन्देह अभी भी बना हुआ है कि ठग एक धार्मिक समुदाय था या केवल साधारण डकैतों का समुदाय।
ब्रितानी न्याय व्यवस्था भारतीयों के लिये अन्यायपूर्ण मानी जाती थी। सन १८५३ में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री लौर्ड अब्रेडीन ने प्रशासनिक सेवा को भारतीयों के लिये खोल दिया परन्तु कुछ प्रबुद्ध भारतीयों के हिसाब से यह सुधार पर्याप्त नही था। कंपनी के अधिकारियों को भारतीयों के विरुद्ध न्यायालयों में अनेक अपीलों का अधिकार प्राप्त था। कंपनी भारतीयों पर भारी कर भी लगाती थी जिसे न चुकाने की स्थिति में उनकी संपत्ति अधिग्रहित कर ली जाती थी। कंपनी के आधुनिकीकरण के प्रयासों को पारम्परिक भारतीय समाज में सन्देह की दृष्टि से देखा गया। लोगो ने माना कि रेलवे जो बाम्बे से सर्वप्रथम चला एक दानव है और लोगो पर विपत्ती लायेगा।
परन्तु बहुत से इतिहासकारों का यह भी मानना है कि इन सुधारों को बढ़ा चढ़ा कर बताया गया है क्योंकि कंपनी के पास इन सुधारों को लागू करने के साधन नही थे और कलकत्ता से दूर उनका प्रभाव नगन्य था [3]

आर्थिक कारण

१८५७ के विद्रोह का एक प्रमुख कारण कंपनी द्वारा भारतीयों का आर्थिक शोषण भी था। कंपनी की नीतियों ने भारत की पारम्परिक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था। इन नीतियों के कारण बहुत से किसान, कारीगर, श्रमिक और कलाकार कंगाल हो गये। इनके साथ साथ जमींदारों और बडे किसानों की स्थिति भी बदतर हो गयी। सन १८१३ में कंपनी ने एक तरफा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली इसके अन्तर्गत ब्रितानी व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी, परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकी और भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को अकल्पनीय क्षति हुई।
रेल सेवा के आने के साथ ग्रामीण क्षेत्र के लघु उद्यम भी नष्ट हो गये। रेल सेवा ने ब्रितानी व्यापारियों को दूर दराज के गावों तक पहुंच दे दी। सबसे अधिक क्षति कपडा़ उद्योग (कपास और रेशम) को हुई। इसके साथ लोहा व्यापार, बर्तन, कांच, कागज, धातु, बन्दूक, जहाज और रंगरेजी के उद्योगों को भी बहुत क्षति हुई। १८ वीं और १९ वीं शताब्दी में ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और अनेक रोकों के चलते भारतीय निर्यात समाप्त हो गया। पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की कारण यह स्थिति और भी विषम हो गयी। साधारण जनता के पास खेती के अलावा कोई और साधन नही बचा।
खेती करने वाले किसानो की हालत भी खराब थी। ब्रितानी शासन के प्रारम्भ में किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया, जिन्होने लगान को बहुत बढा़ दिया और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानो का शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। कंपनी ने खेती के सुधार पर बहुत कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी के खर्चों को पूरा करने मे प्रयोग होता था। फसल के खराब होने की दशा में किसानो को साहूकार अधिक ब्याज पर कर्जा देते थे और अनपढ़ किसानो कई तरीकों से ठगते थे। ब्रितानी कानून व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानो को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था।
इन समस्याओं के कारण समाज के हर वर्ग में असन्तोष व्याप्त था।

राजनैतिक कारण

सन १८४८ और १८५६ के बीच लार्ड डलहोजी ने डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स के कानून के अन्तर्गत अनेक राज्यों पर अधिकार कर लिया। इस सिद्धांत अनुसार कोई राज्य, क्षेत्र या ब्रितानी प्रभाव का क्षेत्र कंपनी के अधीन हो जायेगा, यदि क्षेत्र का राजा निसन्तान मर जाता है या शासक कंपनी की दृष्टि में अयोग्य साबित होता है। इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए लार्ड डलहोजी और उसके उत्तराधिकारी लार्ड कैन्निग ने सतारा,नागपुर,झाँसी,अवध को कंपनी के शासन में मिला लिया। कंपनी द्वारा तोडी गय़ी सन्धियों और वादों के कारण कंपनी की राजनैतिक विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लग चुका था। सन १८४९ में लार्ड डलहोजी की घोषणा के अनुसार बहादुर शाह के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोड़ना पडेगा और शहर के बाहर जाना होगा और सन १८५६ में लार्ड कैन्निग की घोषणा कि बहादुर शाह के उत्तराधिकारी राजा नहीं कहलायेंगे ने मुगलों को कंपनी के विद्रोह में खडा कर दिया।

सिपाहियों की आशंका

सिपाही मूलत: कंपनी की बंगाल सेना मे काम करने वाले भारतीय मूल के सैनिक थे। बम्बई, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेन्सी की अपनी अलग सेना और सेनाप्रमुख होता था। इस सेना में ब्रितानी सेना से अधिक सिपाही थे। सन १८५७ में इस सेना मे २,५७,००० सिपाही थे। बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी की सेना मे अलग अलग क्षेत्रो के लोग होने की कारण ये सेनाएं विभिन्नता से पूर्ण थी और इनमे किसी एक क्षेत्र के लोगो का प्रभुत्व नही था। परन्तु बंगाल प्रेसीडेन्सी की सेना मे भर्ती होने वाले सैनिक मुख्यत: अवध और गन्गा के मैदानी इलाको के भूमिहार राजपूत और ब्राह्मण थे। कंपनी के प्रारम्भिक वर्षों में बंगाल सेना में जातिगत विशेषाधिकारों और रीतिरिवाजों को महत्व दिया जाता था परन्तु सन १८४० के बाद कलकत्ता में आधुनिकता पसन्द सरकार आने के बाद सिपाहियों में अपनी जाति खोने की आशंका व्याप्त हो गयी [4]। सेना में सिपाहियों को जाति और धर्म से सम्बन्धित चिन्ह पहनने से मना कर दिया गया। सन १८५६ मे एक आदेश के अन्तर्गत सभी नये भर्ती सिपाहियों को विदेश मे कुछ समय के लिये काम करना अनिवार्य कर दिया गया। सिपाही धीरे-धीरे सेना के जीवन के विभिन्न पहलुओं से असन्तुष्ट हो चुके थे। सेना का वेतन कम था और अवध और पंजाब जीतने के बाद सिपाहियों का भत्ता भी समाप्त कर दिया गया था। एनफ़ील्ड बंदूक के बारे में फ़ैली अफवाहों ने सिपाहियों की आशन्का को और बढा़ दिया कि कंपनी उनकी धर्म और जाति परिवर्तन करना चाहती है।

एनफ़ील्ड बंदूक

विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ। सिपाहियों को पैटऱ्न १८५३ एनफ़ील्ड बंदूक दी गयीं जो कि ०.५७७ कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग मे लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले मे शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक मे गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पडता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पडता था। कारतूस का बाहरी आवरण मे चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी।
सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस मे लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। यह हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों दोनो की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। ब्रितानी अफ़सरों ने इसे अफ़वाह बताया और सुझाव दिया कि सिपाही नये कारतूस बनाये जिसमे बकरे या मधुमक्क्खी की चर्बी प्रयोग की जाये। इस सुझाव ने सिपाहियों के बीच फ़ैली इस अफ़वाह को और पुख्ता कर दिया। दूसरा सुझाव यह दिया गया कि सिपाही कारतूस को दांतों से काटने की बजाय हाथों से खोलें। परंतु सिपाहियों ने इसे ये कहते हुए अस्विकार कर दिया कि वे कभी भी नयी कवायद को भूल सकते हैं और दांतों से कारतूस को काट सकते हैं।
तत्कालीन ब्रितानी सेना प्रमुख (भारत) जार्ज एनसन ने अपने अफ़सरों की सलाह को दरकिनार हुए इस कवायद और नयी बंदूक से उत्पन्न हुई समस्या को सुलझाने से

अफ़वाहें

ऐक और अफ़वाह जो कि उस समय फ़ैली हुई थी, कंपनी का राज्य सन १७५७ मे प्लासी का युद्ध से प्रारम्भ हुआ था और सन १८५७ में १०० वर्षों बाद समाप्त हो जायेगा। चपातियां और कमल के फ़ूल भारत के अनेक भागों में वितरित होने लगे। ये आने वाले विद्रोह के लक्ष्ण थे।

युद्ध का प्रारम्भ

विद्रोह प्रारम्भ होने के कई महीनो पहले से तनाव का वातावरण बन गया था और कई विद्रोहजनक घटनायें घटीं। २४ जनवरी १८५७ को कलकत्ता के निकट आगजनी की कयी घटनायें हुई। २६ फ़रवरी १८५७ को १९ वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री ने नये कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया। रेजीमेण्ट् के अफ़सरों ने तोपखाने और घुडसवार दस्ते के साथ इसका विरोध किया पर बाद में सिपाहियों की मांग मान ली।

मंगल पाण्डेय

मंगल पाण्डेय ३४ वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री मे एक सिपाही थे। २९ मार्च, १८५७ को बैरकपुर परेड मैदान कलकत्ता के निकट मंगल पाण्डेय ने रेजीमेण्ट के अफ़सर लेफ़्टीनेण्ट बाग पर हमला कर के उसे घायल कर दिया। जनरल जान हेएरसेये के अनुसार मंगल पाण्डेय किसी प्रकार के धार्मिक पागलपन मे थे जनरल ने जमादार ईश्वरी प्रसाद को मंगल पांडेय को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया पर ज़मीदार ने मना कर दिया। सिवाय एक सिपाही शेख पलटु को छोड़ कर सारी रेजीमेण्ट ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार करने से मना कर दिया। मंगल पाण्डेय ने अपने साथीयों को खुलेआम विद्रोह करने के लिये कहा पर किसी के ना मानने पर उन्होने अपनी बंदूक से अपनी प्राण लेने का प्रयास करी। परन्तु वे इस प्रयास में केवल घायल हुये। ६ अप्रैल, १८५७ को मंगल पाण्डेय का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और ८ अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी।
ज़मीदार ईश्वरी प्रसाद को भी मृत्यु दंड दे दिया गया और उसे भी २२ अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी। सारी रेजीमेण्ट को समाप्त कर दिया गया और सिपाहियों को निकाल दिया गया। सिपाही शेख पलटु की पदोन्नति कर बंगाल सेना में ज़मीदार बना दिया गया।
अन्य रेजीमेण्ट के सिपाहियों को यह दंड बहुत ही कठोर लगा। कई ईतिहासकारों के अनुसार रेजीमेण्ट को समाप्त करने और सिपाहियों को बाहर निकालने ने विद्रोह के प्रारम्भ होने मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, असंतुष्ट सिपाही बदला लेने की इच्छा के साथ अवध लौटे और विद्रोह ने उने यह अवसर दे दिया।
अप्रैल के महीने में आगरा, इलाहाबाद और अंबाला शहरों मे भी आगजनी की घटनायें हुयीं।

मेरठ और दिल्ली

मेरठ एक दूसरा बडा सैनिक अड्डा था जहां २,३५७ भारतीय, २,०३८ ब्रितानी सिपाही, १२ ब्रितानी सिपाहियों द्वारा सन्चालित तोपें उपस्थित थीं। बंगाल सेना में असन्तोष की बात सभी लोग उस समय भलीभान्ती जानते थे, फ़िर भी २४ अप्रैल को ३ बंगाल लाइट कैवलरी (घुडसवार दस्ता) के सेनानायक लैफ़्टिनेण्ट-कर्नल जार्ज कार्मिशैल स्मिथ ने अपने ९० सिपाहियों को परेड़ करने और गोलाबारी का अभ्यास करने को कहा। पांच को छोड़ कर सभी सिपाहियों ने परेड करने और कारतूस लेने से मना कर दिया। ९ मई को ८५ सिपाहियों का सैनिक अदालत द्वारा कोर्ट मार्शल कर दिया गया, अधिकतर सिपाहियों को १० वर्ष के कठोर कारावास का दंड सुनाया गया। ११ सिपाही जिनकी आयु कुछ कम थी उन्हें ५ वर्ष का दंड सुनाया हया। बंदी सिपाहियों को बेडि़यों में बाँधकर और वर्दी उतार कर सेना के सामने परेड़ कराई गयी। इसके लिये बंदी सिपाहियों ने अपने साथी सैनिकों को समर्थन न करने के लिये भी दोषी ठहराया। सबसे ज्यदा योगदान कोतवाल धन सिन्ह गुर्जर का था यहा कमान उनके हाथ मे रही|
अगला दिन रविवार का था, इस दिन अधिकतर ईसाई आराम और पूजा करते थे। कुछ भारतीय सिपाहियों ने ब्रितानी अफ़सरों को, बंदी सिपाहियों को जबरन छुड़ाने की योजना का समाचार दिया, परंतु बडे अधिकारियों ने इस पर कोइ ध्यान नही दिया। मेरठ शहर में भी अशान्ति फ़ैली हुयी थी। बाज़ार मे कई विरोध प्रदर्शन हुए थे और आगजनी की घटनायें हुयी थी। शाम को बहुत से यूरोपिय अधिकारी चर्च जाने को तैयार हो रहे थे, जबकि बहुत से यूरोपिय सैनिक छुट्टी पर थे और मेरठ के बाज़ार या कैंटीन गये हुए थे। भारतीय सिपाहियों ने ३ बंगाल लाइट कैवलरी के नेत्रत्व में विद्रोह कर दिया। कनिष्ठ अधिकारियों ने विद्रोह को दबाने का प्रयास किया पर वे सिपाहियों द्वारा मारे गये। यूरोपिय अधिकारीयों और असैनिकों के घरों पर भी हमला हुआ, और ४ असैनिक, ८ महिलायें और ८ बच्चे मारे गये। छुट्टी पर गये सिपाहियों ने बाज़ार में भीड पर भी हमला किया। सिपाहियों ने अपने ८५ बन्दी साथियों और ८०० अन्य बंदियों को भी छुडा लिया।[5]
कुछ सिपाहियों ने (मुख्य्त: ११ बंगाल नेटिव ईन्फ़ैंट्री) विद्रोह करने से पहले विश्वस्नीय अधिकारियों और उन्के परिवारों को सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दिया। [6] कुछ अधिकारी और उनके परिवार रामपुर बच निकले और उन्होने रामपुर के नवाब के यहां शरण ली। ५० भारतीय असैनिक (अधिकारियों के नौकर जिन्होने अपने मालिको को बचाने या छुपाने का प्रयास किया) भी विद्रोहियों द्वारा मारे गये।[7] नर संहार की अतिश्योक्ति पूर्ण कहानियों और मरने वालों की संख्या ने कंपनी को असैनिक भारतीय और विद्रोहियों के दमन का एक बहाना दे दिया।
वरिष्ठ कंपनी अधिकारी, मुख्य्त: मेजर-जनरल हेविट्ट जो कि सेना के प्रमुख थे और ७० वर्ष के थे प्रतिक्रिया में धीमें रहे। ब्रितानी सैनिक (६० राईफ़लों और यूरोपिय सैनिकों द्वारा संचालित बंगाल तोपखाना ) आगे बड़े परंतु उन्हें विद्रोही सिपाहियों से लडने का कोई आदेश नही मिला और वे केवल अपने मुख्यालय और तोपखाने की सुरक्षा ही कर सके। ११ मई की सुबह को जब वे लड़ने को तैयार हुए तब तक विद्रोही सिपाही दिल्ली की ओर जा चुके थे।
उसी सुबह ३ बंगाल लाइट कैवलरी दिल्ली पंहुची। उन्होने बहादुर शाह ज़फ़र से उनका नेतृत्व करने को कहा। बहादुर शाह ने उस समय कुछ नहीं कहा पर किले में उपस्थित अन्य लोगो ने विद्रोहीयों का साथ दिया। दिन में विद्रोह दिल्ली में फ़ैल गया। बहुत से यूरोपिय अधिकारी, उनके परिवार, भारतीय धर्मांतरित ईसाई और व्यापारियों पर सिपाहियों और दंगाईयों द्वारा भी हमले हुए। लगभग ५० लोगों को बहादुर शाह के नौकरों द्वारा महल के बाहर मार दाला गया।[8]
दिल्ली के पास ही बंगाल नेटिव ईन्फ़ैंट्री की तीन बटालियन उपस्थित थी, बटालियन के कुछ दस्ते तुरन्त ही विद्रोहियों के साथ मिल गये और बाकियों ने विद्रोहियो पर वार करने से मना कर दिया। दोपहर मे नगर में एक भयानक धमाका सुनायी पडा। नगर में बने हुए शस्त्रागार को बचाने में तैनात ९ ब्रितानी अधिकारियों ने विद्रोही सिपाहियों और अपनी ही सुरक्षा में लगे सिपाहियों पर गोलीबारी की। परंतु असफ़ल होने पर उन्होने शस्त्रागार को उडा दिया। ९ में से ६ अधिकारी बच गये पर उस धमाके से उस सड़क पर रहने वाले कई लोगो की मृत्यु हो गयी।[9] दिल्ली में हो रही इन घटनाओं का समाचार सुन कर नगर के बाहर तैनात सिपाहियों ने भी खुला विद्रोह कर दिया।
भाग रहे यूरोपिय अधिकारी और असैनिक उत्तरी दिल्ली के निकट फ़्लैग स्टाफ़ बुर्ज के पास एकत्रित हुए। यहां बहुत से तार संचालक ब्रितानी मुख्यालय को हो रही घटनाओं का समाचार दे रहे थे। जब ये स्पष्ट हो गया कि कोई सहायता नही मिलेगी तो वे करनाल की ओर बढे़। रास्ते में कुछ लोगो की सहायता ग्रामीणों ने की और कुछ यूरोपियों को लूटा औरा मारा भी गया।
अगले दिन बहादुर शाह ने कई वर्षों बाद अपना पहला अधिकारिक दरबार लगाया। बहुत से सिपाही इसमें सम्मिलित हुए। बहादुर शाह इन घटनाओं से चिन्तित थे पर अन्तत: उन्होने सिपाहियों को अपना समर्थन और नेतृत्व देने की घोषणा कर दी।

समर्थन तथा विरोध

दिल्ली में हुयी घटनाओं का समाचार तेजी से फ़ैला और इसने विभिन्न जिलों में सिपाहियों के बीच असन्तोष को और फ़ैला दिया। इन में बहुत सी घटनाओं का कारण ब्रितानी अधिकारियों का व्यवहार था जिसने अव्यवस्था को फ़ैलाया। दिल्ली पर हुए अधिकार की बात तार से जानने के बाद बहुत से कंपनी अधिकारी शीघ्रता में अपने परिवार और नौकरों के साथ सुरक्षित स्थानों पर चले गये। दिल्ली से १६० कि.मी. दूर आगरा में लगभग ६००० असैनिक किले पर इकठ्ठा हो गये।[10] जिस शीघ्रता में असैनिक अपना पद छोड कर भागे उससे विद्रोही सैनिकों उन क्षेत्रों को बहुत बल मिला। यद्यपि बाकी अधिकारी अपने पदों पर तैनात थे पर इतने कम लोगों के कारण किसी प्रकार की व्यवस्था बनाना असम्भव था। बहुत से अधिकारी विद्रोहियों और अपराधियों द्वारा मारे गये।
सैनिक अधिकारीयों ने भी संयोजित तरीके से कार्य नहीं किया। कुछ अधिकारीयों ने सिपाहियों पर विश्वास किया परन्तु कुछ ने भविष्य के विद्रोह से बचने के लिये सिपाहियों को निशस्त्र करना चाहा। बनारस और इलाहाबाद में निशस्त्रीकरण में गड़बड़ होने के कारण वहां भी स्थानीय विद्रोह प्रारम्भ हो गया।[11]
यद्यपि आन्दोलन बहुत व्यापक था परन्तु विद्रोहियों में एकता का अभाव था। जबकि बहादुर शाह ज़फ़र दिल्ली के तखत पर बिठा दिये गये थे, विद्रोहियों का एक भाग मराठों को भी सिन्हासन पर बिठाना चाहता था। अवध निवासी भी नवाब की रियासत को बनाये रखना चाहते थे।
मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ खैराबादी और अहमदुल्लाह शाह जैसे मुस्लिम नेताओं द्वारा जिहाद [12] का आह्वान किया गया। इसका विशेषरुप से मुसलिम कारीगरों द्वारा समर्थन किया गया। इस के कारण अधिकारीयों को लगा कि विद्रोह के मुखिया मुसलिमों के बीच हैं। अवध में सुन्नी मुसलिमों ने इस जिहाद का अधिक समर्थन नहीं किया क्योंकि वो इसे मुख्य रूप से शिया आन्दोलन के रूप में देखते थे। कुछ मुस्लिम नेता जैसे आगा खान ने इस विद्रोह का विरोध किया जिसके लिये ब्रितानी सरकार ने उनका सम्मान भी किया। मुजफ़्फ़र नगर जिले के पास स्थित थाना नगर में सुन्नियों ने हाजी इमादुल्लाह को अपना अमीर घोषित कर दिया। मई १८५७ में हाजी इमादुल्लाह की सेना और ब्रितानी सैनिकों के बीच शामली की लड़ाई हुयी।
पंजाब और उत्तरी-पश्चिमी प्रोविंस (नौर्थ-वेस्ट प्रोविंस) से सिख और पठान सिपाहियों ने ब्रितानी शासन का समर्थन किया और दिल्ली पर अधिकार करने में सहायता की। [13][14] कई इतिहासकारों का ये मत है कि सिख सिपाही आठ वर्ष पहले हुई हार का बदला लेना चाहते थे जिसमें बंगाल और मराठा सिपाहियों ने ब्रितानी सैनिकों की सहायता की थी।[15]
१८५७ में बंगाल सेना में कुल ८६,००० सैनिक थे, जिसमें १२,००० य़ूरोपिय, १६,००० पंजाबी और १,५०० गुरखा सैनिक थे। जबकी भारत की तीनो सेनाओं में कुल ३,११,००० स्थानिय सैनिक, ४०,१६० य़ूरोपिय सैनिक और ५,३६२ अफ़सर थे। बंगाल सेना की ७५ में से ५४ रेजिमेण्ट ने विद्रोह कर दिया।[16] इनमे से कुछ को नष्ट कर दिया गया और कुछ अपने सिपाहियों के साथ अपने घरों की ओर चली गयी। सभी बची हुयीं रेजिमेण्ट को समाप्त कर दिया गया और निशस्त्र कर दिया गया। बंगाल सेना की दसों घुड़सवार रेजिमेण्टों ने विद्रोह कर दिया।
बंगाल सेना में २९ अनियमित घुड़सवार रेजिमेण्ट और ४२ अनियमित पैदल रेजिमेण्ट भी थीं। इनमे मुख्य रूप से अवध के सिपाही थे जिन्होने संयुक्त रूप से विद्रोह कर दिया। दूसरा मुख्य भाग ग्वालियर के सैनिको का था जिसने विद्रोह किया परन्तु ग्वालियर के राजा ब्रितानी शासन के साथ थे। बाकी अनियमित सेना विभिन्न स्रोतों से ली गयी थी और वह उस समय के समाज की मुख्यधारा से अलग थी। मुख्य रूप से तीन धड़ों क्षे ने कंपनी का साथ दिया, इनमे तीन गुरखा, छः में से पांच सिख पैदल रेजिमेण्टों और हाल ही में बनायी गयी पंजाब अनियमित सेना की छः पैदल तथा छः घुड़सवार दस्ते शामिल थे।[17][18]
१ अप्रेल १८५८ को बंगाल सेना में कंपनी के वफ़ादार भारतीय सैनिकों की संख्या ८०,०५३ थी।[19][20] ईसमें बहुत संख्या में वो सैनिक थे जिनको विद्रोह के बाद भारी मात्रा में पंजाब और उत्तरी-पश्चिमी प्रोविंस (नौर्थ-वेस्ट प्रोविंस) से सेना मे भरती किया गया था।
बम्बई सेना (बांबे आर्मी) की २९ रेजिमेण्ट में से ३ रेजिमेण्ट ने विद्रोह किया और मद्रास सेना की किसी रेजिमेण्ट ने विद्रोह नही किया यद्यपि ५२ रेजिमेण्ट के कुछ सैनिकों ने बंगाल में काम कर्ने से मना कर दिया।[21] कुछ क्षेत्रों को छोड कर अधिकतर दक्षिण भारत शान्त रहा। अधिकतर राज्यों ने इस विद्रोह मे भाग नही लिया क्योंकी इस क्षेत्र का अधिकतर भाग निज़ाम और मैसूर रजवाडे द्वारा शासित था और वो ब्रितानी शासन के अन्तर्गत नहीं आते थे।

विद्रोह

प्रारम्भिक अवस्था

बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने आप को भारत का शहंशाह घोषित कर दिया। बहुत से इतिहासकारों का ये मत है कि उनको सिपाहियों एवं दरबारियों द्वारा इस के लिये बाध्य किया गया। बहुत से असैनिक, शाही तथा प्रमुख व्यकित्यों ने शहंशाह के प्रति राजभक्ति की शपथ ली। शहंशाह ने अपने नाम के सिक्के जारी किये जो कि अपने को राजा घोषित करने की एक प्राचीन परम्परा थी। परन्तु इस घोषणा ने पंजाब के सिखों को विद्रोह से अलग कर दिया। सिख नहीं चाहते थे की मुगल शासकों से इतनी लडाईयां लडने के बाद शासन मुगलों के हाथ में चला जाये।
बंगाल इस पूरी अवधि के दौरान शांत रहा। विद्रोही सैनिकों ने कंपनी की सेना को महत्वपूर्ण रुप से पीछे धकेल दिया और हरियाणा, बिहार, मध्य भारत और उत्तर भारत में महत्वपूर्ण शहरों पर कब्जा कर लिया। जब कंपनी की सेना ने संगठित हो कर वापस हमला किया तो केन्द्रिय कमान एवं नियंत्रण के अभाव में विद्रोही सैनिक मुकाबला कर्ने में अक्षम हो गये। अधिकतर लडायियों में सैनिकों को निर्देश के लिये राजाओं और रजवाडों की तरफ़ देखना पडा। यद्यपि ईनमे से कई स्वाभाविक नेता साबित हुए पर बहुत से स्वार्थी और अयोग्य साबित हुए।

दिल्ली

"Capture of the King of Delhi by Captain Hodson"
  • मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर।
  • बख्त खान की महत्वपू़र्ण भुमिका।

लखनऊ

"Attack of the Mutineers on the Redan Battery at Lucknow, July 30th, 1857,
  • बेगम हज़रत महल and her son birjis qadir
मेरठ में घटनाओं के बाद बहुत जल्द, अवध (अवध के रूप में भी जाना जाता है, आधुनिक दिन उत्तर प्रदेश में), जो बमुश्किल एक साल पहले कब्जा कर लिया था की राज्य में विद्रोह भड़क उठी. लखनऊ में ब्रिटिश आयुक्त निवासी सर हेनरी लॉरेंस, रेजीडेंसी परिसर के अंदर अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए पर्याप्त समय था. कंपनी बलों वफादार सिपाही सहित कुछ 1700 पुरुषों, गिने. 'विद्रोहियों के हमले असफल रहे थे, और इसलिए वे परिसर में तोपखाने और बंदूक आग की बौछार शुरू कर दिया. लॉरेंस पहली हताहतों की थी. विद्रोहियों ने विस्फोटकों से दीवारों को भंग करने और उन्हें भूमिगत सुरंगों कि भूमिगत करीबी मुकाबला करने के लिए नेतृत्व के माध्यम से बाईपास की कोशिश की. घेराबंदी के 90 दिनों के बाद, कंपनी बलों की संख्या 300 वफादार सिपाहियों, 350 ब्रिटिश सैनिकों और 550 गैर - लड़ाकों के लिए कम हो गई थी.
25 सितंबर Cawnpore से सर हेनरी हैवलॉक के आदेश के तहत राहत स्तंभ और सर जेम्स Outram (जो सिद्धांत में अपने बेहतर था) के साथ एक संक्षिप्त अभियान में जो संख्यानुसार छोटे स्तंभ एक श्रृंखला में विद्रोही सेनाओं को हराया में अपनी तरह से लखनऊ लड़े तेजी से बड़ी लड़ाई की. यह लखनऊ के पहले राहत के रूप में जाना बन गया है, के रूप में इस बल को मजबूत करने के लिए घेराबंदी को तोड़ने के लिए या खुद को मुक्त कर देना पर्याप्त नहीं था, और इतना करने के लिए चौकी में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया था. अक्तूबर में एक और बड़ा है, के तहत सेना के नए कमांडर इन चीफ, सर कॉलिन कैम्पबेल, अंत में चौकी को राहत देने में सक्षम था और 18 नवंबर को, वे शहर के भीतर बचाव एन्क्लेव खाली, महिलाओं और बच्चों को पहले छोड़ने. वे तो Cawnpore, जहां वे Tantya टोपे द्वारा एक प्रयास Cawnpore की दूसरी लड़ाई में शहर हटा देना पराजित करने के लिए एक व्यवस्थित वापसी का आयोजन किया.

बरेली

khan bahadur मेरत मे १०मई १८५७ को -२१ दिन पहले- क्रान्ति का बिगुल बज गया | बरेली मे तब ८ न०देशी सवार, १८ और ६८ न० की पैदल सेना थी | इस सेना ने ३१ मई को विद्रोह किया |यह रविवार क दिन था |सुबह दस बजे एक तोप दगी| यह क्रान्तिक सन्केत था | सेना बैरको से बाहर निकल आई|
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