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29 मई 2013

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष


आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है | हिंदी पत्रकारिता को आज 185 वर्ष हो गए है | हमारे देश में पत्रकारिता की शुरुआत पं. जुगल किशोर शुक्ल ने की थी, उन्होंने उदंत मार्तंड को रूप दिया और इसके साथ काफी लम्बे समय तक पत्रकारिता करते रहे, उदंत मार्तंड इसलिए बंद हुआ क्योंकि पं जुगल किशोर के पास उसे चलाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे| पिछले 185 साल में काफी चीजे बदली है| आज बहुत से लोग इस क्षेत्र में पैसा लगा रहे है | यह एक बड़ा कारोबार बन गया है | जो हिंदी का क ख ग भी नहीं जानते वे हिंदी में आ रहे है| 185 सालो में हिंदी अखबारों एवं न्यूज़ पत्रकारिता के क्षेत्र में काफी तेजी आई है | साक्षरता बड़ी है | पंचायत स्तर पर राजनेतिक चेतना बड़ी है | इसके साथ ही साथ विज्ञापन बडे है | हिन्दी के पाठक अपने अखबारों को पूरा समर्थन देते हैं। महंगा, कम पन्ने वाला और खराब कागज़ वाला अखबार भी वे खरीदते हैं। अंग्रेज़ी अखबार बेहतर कागज़ पर ज़्यादा पन्ने वाला और कम दाम का होता है। यह उसके कारोबारी मॉडल के कारण है। आज कोई हिन्दी में 48 पेज का अखबार एक रुपए में निकाले तो दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया का बाज़ा भी बज जाए, पर ऐसा नहीं होगा। इसकी वज़ह है मीडिया प्लानर।
कौन हैं ये मीडिया प्लानर? ये लोग माडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। चूंकि पैसे का इंतज़ाम ये लोग करते हैं, इसलिए इनकी सुनी भी जाती है। इसमें ग़लत कुछ नहीं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ ज़रूरतें भी होतीं हैं। उनकी सबसे बड़ी पूँजी उनकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। जब कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा करने लगता है, तब वह उस वस्तु को खरीदने के बारे में सोचना शुरू करता है, जिसका विज्ञापन अखबार में होता है। विज्ञापन छापते वक्त भी अखबार ध्यान रखते हैं कि वह विज्ञापन जैसा लगे। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन से अपनी दूरी रखते हैं। यह एक मान्य परम्परा है।
अखबार अपने मूल्यों पर टिकें तो उतने मज़ेदार नहीं होंगे, जितने होना चाहते हैं। जैसे ही वे समस्याओं की तह पर जाएंगे उनमें संज़ीदगी आएगी। दुर्भाग्य है कि हिन्दी पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी थी, बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ने चले जाते हैं। ऊपर से अखबारों के संचालकों के मन में अपनी पूँजी के रिटर्न की फिक्र है। वे भी संज़ीदा मसलों को नहीं समझते। यों जैसे भी थे, अखबारों के परम्परागत मैनेजर कुछ बातों को समझते थे। उन्हें हटाने की होड़ लगी। अब के मैनेजर अलग-अलग उद्योगों से आ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता के मूल्यों-मर्यादाओं का ऐहसास नहीं है।
अखबार शायद न रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात पूरे समाज को समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाते, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया। इसके अलावा एक तरह का पाखंड भी सामने आया है। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते वक्त दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर अखबार बनाते वक्त कहते हैं, जो बिकेगा वहीं देंगे। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। कम खर्च में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना मुश्किल है। आज के समय में जब हर व्यक्ति अपनी जिन्दगी के रोजमर्रा कामो में बहुत ज्यादा व्यस्त हो चूका है उसके पास इतना समय तक नहीं हे के वह अख़बार के 16 से 22 पेज में से अपने जरुरत की जानकारिय और देश विदेश में हो रही हलचल की जानकारिय पा सके | इसे समय में इ-मीडिया बहुत अच्छा विकल्प बनकर उभरा है जहा पर पाठक अपनी जरुरत के हिसाब से किसी भी क्षेत्र को चुनकर उस क्षेत्र की जानकारी और खबर हासिल कर सकता है |
इ-मीडिया के क्षेत्र में “News Bunch ” एक बेहतर विकल्प बनकर उभरा है | आज के भागमभाग वाले दोर में न्यूज़ बंच अपने पाठको को SMS एवं सोशिअल नेटवर्किंग के द्वारा खबरों को सीधे पाठक तक पहुचने का काम कर रहा है|
पत्रकारिता अमर है बस उसे करने के लिए जोशीले कर्मठ युवाओ की जरुरत है वह समय के साथ-साथ अपना रूप बदलती रहेगी | कभी प्रिंट मीडिया कभी इलेक्ट्रोनिक मीडिया के रूप में| पत्रकारिता को करने के लिए पत्रकारों को चाहिए कि वह अपना काम पुरे जोश और लगन से करते रहे और पत्रकारिता को मजबूत बनाते रहे|
जय हिंद जय भारत
प्रतीक सिंह यादव

बदलते समय में हिंदी पत्रकारिता

 

अनेक दिवस-दिवसों की तरह 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस सिर्फ एक कर्मकांड नहीं है। साल-दर-साल अपने पेशे यानी पत्रकारिता को कसौटी पर कसने, मूल्यांकन करने और आत्म-निरीक्षण का यह दिन हमें अपनी परंपरा के प्रति जागृत करता है और आगे का रास्ता भी तय करने का अवसर देता है। साल 1826 की 30 मई को कलकत्ते (अब कोलकाता) की आमड़ातल्ला गली के एक कोने से प्रकाशित अल्पजीवी पत्र उदन्त मार्तण्ड ने इतिहास रचा था। मुफलिसी में भी अपने पत्रकारीय जज्बे को जिंदा रखने वाले इसके संपादक युगल किशोर सुकुल को 187 साल बाद याद करके भारतीय पत्रकारिता की संघर्षशीलता का रोमांच कौंध उठता है। थोड़ा पीछे देखें, तो ‘संघर्ष’ भारतीय पत्रकारिता की नियति प्रतीत होता है और आज भी वह इस पेशे का प्रेरणा-बिंदु या थाती है। पत्रकारिता के पौधे को सींचने वाली ‘कंपनी’ के मुलाजिम जेम्स आगस्टस हिक्की (भारत के पहले समाचार पत्र के संपादक) को ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश निकाला दे दिया। कोलकाता के ही राजा राममोहन राय को अपने समाचार-पत्रों को सुधारवादी आंदोलनों का हथियार बनाने के लिए कट्टरपंथियों की तीखी आलोचनाएं व प्रहार झेलने पड़े। कोलकाता में ही बड़ा बाजार और दूसरे बाजारों में दुकान-दुकान, घर-घर जाकर सेठों को अपना अखबार ‘बांच’ (पढ़) कर सुनाने और बदले में चार-छह पैसा पाकर अखबार चलाने वाले उचित वक्ता के संपादक दुर्गाप्रसाद मिश्र का संघर्ष कम ही लोगों को ज्ञात होगा। घोर मुफलिसी में काशी की गंदी अंधेरी कोठरी में ‘स्वनामधन्य- संपादकाचार्य’ पराड़करजी के आखिरी दिनों की कहानी और भी सिहरन भरी है।
वर्तमान दौर भी कम उद्वेलित नहीं करता। समूचे विश्व में पत्रकारिता आज भी संघर्ष और जज्बे का पेशा है। मिशन से प्रोफेशन और फिर ‘बिजनेस’ की बातें बहुत होती रही हैं, पर वास्तविकता से परे पत्रकारिता का कोई भी विमर्श कुछ भी अर्थ नहीं रखता। पहले मानते थे कि ललाट (मस्तक) पर टीका, धोती-कुरता, अंग-वस्त्रम् के बिना संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने का काम नहीं हो सकता। वक्त बदल चुका है। कुछ वैसी ही धारणा पत्रकारिता की ‘संघर्षशीलता’ को लेकर भी रही। बढ़ी हुई दाढ़ी, कुरता, कंधे पर बगल में टंगा थैला, फटी-पुरानी चप्पलें, बिवाई वाले पांव व वाचलता यानी किसी भी विषय पर कुछ भी उल्टी-सीधी क्रांतिकारी बयानबाजी- ये सभी एक पत्रकार को रूपायित करते थे। लेकिन आज के व्यावसायिक दौर में पत्रकारिता की कार्यशैली काफी कुछ बदल चुकी है। उसका स्वरूप निरंतर बदल रहा है। बदलाव के इस दौर में ‘जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’ का जुमला उछालकर पत्रकार और पत्रकारिता के स्वरूप और दायित्वों को समेटना बेमानी है। मेरी दृष्टि में ‘मिशन’ से ‘प्रोफेशन’ के दौर में पहुंची पत्रकारिता के लिए व्यावसायिक नैतिकता (प्रोफेशनल एथिक्स) का महत्व सबसे ऊपर है। इसके बावजूद समूचा परिदृश्य निराशापूर्ण है। कितना भी प्रोफेशनलिज्म हो, पत्रकारिता का मूलमंत्र या पत्रकारिता की आत्मा ‘मिशन’ ही है और  वही रहेगी। तभी तो देश के लगभग 37,000 से ज्यादा स्ट्रिंगर और अल्पकालिक संवाददाता-पत्रकार पत्रकारिता की सेवा में जुटे हुए हैं। मोटी तनख्वाह या तनख्वाह न पाने वालों का असली मानदेय ‘मिशन’ की पूर्ति से मिलने वाला संतोष ही है। आखिर अपना कैमरा संभाले कमर तक पानी में घुसकर या नक्सलियों के ‘डेन’ (अड्डों) में जाकर कवरेज करने वाले किस पत्रकार की भरपायी की जाती है? या फिर आतंक के महासागर पाकिस्तान में मीडिया के लिए समाचार या कंटेंट जुटाने-लाने के लिए अपनी जान गंवा देने वाले, सिर कटा लेने वाले डैनियल पर्लो को भला कितना वेतन मिलता है? यह सच है कि आज के बाजारीकरण के दौर में पत्रकारिता का काम बदला है। ‘मीडिया कर्म’ को या पत्रकार को जर्नलिस्ट नहीं, ‘कंटेंट प्रोवाइडर’ माना जाने लगा है। फिर भी भारतीय पत्रकारिता की मूलधारा इस बाजारीकरण की आंच से नहीं पिघली। उसमें जोखिम झेलने का जज्बा बरकरार है।
आज पत्रकारिता के कामकाज की दशाएं बदली हैं। एक पत्रकार को जीविका के लिए पूरा साधन न मिले, तो वह देश-दुनिया की चिंता क्या करेगा? फिर भी दूसरे पेशों में यह स्थिति पत्रकारिता क्षेत्र में काम करने वालों से काफी अच्छी है। चीन के ‘नंगे पैर डॉक्टर’ वाले प्रयोग का हमारी पत्रकारिता में एक अलग समर्पित रूप मिलता है। नंगे पैर गांव-गिरांव की सेवा करने वाले पत्रकारों की यहां कमी नहीं, पर इन्हें पूछता कौन है? वह दौर-ए-गुलामी था, यह दौर-ए-गुलामां है- पत्रकारिता के संघर्ष की इससे दो दिशाएं साफ होती हैं। तब ‘मिशन’ था अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का और अब दौर है आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक दासता से मुक्ति का। इसी ‘मुक्ति’ की चाहत के साथ समर्पित भाव से काम करने वाले दुनिया के 29 देशों में 141 पत्रकारों ने अपनी जानें गंवा दीं। आंकड़े देखें, तो सीरिया पत्रकारों व पत्रकारिता के लिए सबसे खतरनाक देश है। भारतीय पत्रकारिता के बारे में भी कहा गया- ‘तलवार की धार पे धावनो है’- पत्रकारिता तलवार की धार पर दौड़ने के समान है। सचमुच इन 141 पत्रकारों ने सिर्फ एक वर्ष 2012 में ऐसा कर दिखाया। इनके जज्बे को भी सलाम करने का मौका है- पत्रकारिता दिवस। हाल ही में मैं अंडमान निकोबार में था। वहां की सेलुलर जेल में ही हजारों भारतीयों ने कालापानी की सजा काटी थी।  उस जेल की काल कोठरियों से अंग्रेज हुक्मरानों को दहला देने वाली ‘वंदे मातरम’ की जो आवाजें गूंजती थीं, उनमें बहुत से स्वर पत्रकारों-संपादकों के भी थे। जेल के फांसी घर में लटकते तीन फंदों पर कितने पत्रकार-संपादक झूल गए थे, लोगों को यह पता भी नहीं। इस विषय पर पत्रकारिता विश्वविद्यालयों और विभागों में शोधकार्य की आवश्यकता पर केंद्र सरकार-राज्य सरकारों को ध्यान देना चाहिए। उन पत्रकारों के संघर्ष और बलिदान को यह नमन-श्रद्धांजलि होगी। आज इसी के साथ स्वंतत्र पत्रकारिता के नाम पर मीडिया में, खासकर कुछ ब्लॉग लिखने-चलाने वाले स्वार्थी ब्लैकमेलरों के विरुद्ध समाज और खुद मीडिया की मुहिम जरूरी है। तभी तो भाषा, संदर्भ और विषय की जानकारी न रखने वाले, कहीं काम न पा सके लोगों के पत्रकारिता में घुस आने पर देश के जिम्मेदार लोगों की चिंता का हल ढूंढ़ा जा सकेगा।  तिलक, गांधी और भगत सिंह सहित आजादी के दौर के प्राय: सभी क्रांतिकारियों-राजनेताओं ने मिशन के लिए पत्रकारिता का सहारा लिया। वह भी भाषायी पत्रकारिता, खासकर हिंदी पत्रकारिता का, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जा सके। आज पत्रकारिता में इस मिशन या समर्पण को बनाए रखने के लिए समाज के सहारे और व्यापक समर्थन की जरूरत है।

आज तीस मई पत्रकारिता दिवस है

" .    आज तीस मई पत्रकारिता दिवस है   30 मई 1826 को प. युगल किशोर शुक्ल के सम्पादन में कोलकता से 'उत्तंड मार्तण्ड' का प्रकाशन शुरू कर देश में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत की थी. आज़ादी के दौर में पत्रकारिता परवान चढी थी. "उद्दंड मार्तंड" और "सरस्वती" के दौर में एक विज्ञापन निकलता है --"आवश्यकता है सम्पादक की, वेतन /भत्ता - दो समय की रोटी -दाल, अंग्रेजों की जेल और मुकदमें" लाहौर का एक युवक आवेदन करता है और प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी उसको सम्पादक नियुक्त करते हैं. सरदार भगत सिंह इस प्रकार अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत करते हैं. तब पत्रकारिता प्रवृत्ति थी अब आज़ाद...ी के बाद वृत्ति यानी आजीविका का साधन हो गयी. पहले पत्रकारिता मिसन थी अब कमीनो का कमीसन हो गयी. भगत सिंह ने जब असेम्बली बम काण्ड किया तो अंग्रेजों को उनके विरुद्ध कोइ भारतीय गवाह नहीं मिल रहा था. तब दिल्ली के कनाटप्लेस पर फलों के जूस की धकेल लगाने वाले सरदार सोभा सिंह ने अंग्रेजों के पक्ष में भगत सिंह के विरुद्ध झूटी गवाही देकर भगत सिंह को फांसी दिलवाई और इस गद्दारी के बदले सरदार शोभा सिंह को अंग्रेजों ने पुरुष्कृत करके " सर" की टाइटिल दी और कनाट प्लेस के बहुत बड़े भाग का पत्ता भी उसके हक़ में कर दिया. मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह इसी सरदार शोभा सिंह के पुत्र हैं. अब पत्रकारों को तय ही करना होगा कई वह पुरुष्कृतों के प्रवक्ता हैं या तिरष्कृतों के. यानी पत्रकारों की दो बिरादरी साफ़ हैं एक -- गणेश शंकर विद्यार्थी /भगत सिंह के विचार वंशज और दूसरे सरदार शोभा सिंह के विचार बीज. 2G की कुख्याति में हमने बरखा दत्त, वीर सिंघवी, प्रभु चावला और इनके तमाम विचार वंशज पत्रकारों को "दलाल" के आरोप से हलाल किया फिर भी पत्रकारिता के तमाम गुप चुप पाण्डेय अभी बचे हैं. विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया की मंडी की फ्राडिया राडिया रंडीयाँ और दलाल अभी भी सच से हलाल होना शेष हैं. "पेड न्यूज" और "मीडिया मेनेजमेंट" जैसे शब्द संबोधन वर्तमान मीडिया का चरित्र साफ़ कर देते हैं कि मीडिया का सच अब बिकाऊ है टिकाऊ नहीं. क्या है कोई संस्था जो पत्रकारों पर आय की ज्ञात श्रोतों से अधिक धन होने की विवेचना करे ? पहले सच मीडिया बताती थी और न्याय न्याय पालिका करती थी. मीडिया और न्याय पालिका ही दो हाथ थे जो रोते हुए जन -गन -मन के आंसू पोंछते थे. अब ये दोनों हाथ जनता के चीर हरण में लगे हैं. पत्रकारों से प्रश्न है --"सच" में तो सामर्थ्य है पर क्या वर्तमान में मीडिया सच की सारथी है या इतनी स्वार्थी है कि सच की अर्थी निकाल रही है." ---- राजीव चतुर्वेदी

आमरस में धीमा जहर, कैंसर समेत कई बीमारियों का है खतरा

जयपुर। क्या आपको पता है कि जो आम आजकल आप खा रहे हैं, वह धीमा जहर है ? शहर की मंडियों में इसे जिस 'मसाले' (बोरों में कैल्शियम कार्बाइड की पुडिय़ा डालकर) से पकाया जाता है, उससे कैंसर समेत कई बीमारियों के खतरे हैं। अफसोस कि 3 साल पहले भास्कर ने मुहाना मंडी में खुलेआम हो रही इस आपराधिक लापरवाही की रिपोर्ट छापी थी, लेकिन तब सीएमचओ और फूड सेफ्टी कमिश्नर महज एक कार्रवाई करके सो गए।


अब फिर ने मंडी व कई जगहों पर फल पकाने का काम देखा। जब व्यापारियों को बताया गया कि भारत समेत कई देशों में कार्बाइड से फल पकाने पर कानूनी प्रतिबंध है, तो वे बोले- हम कई साल से ऐसा करते आ रहे हैं, स्वास्थ्य को नुकसान जैसी बातों का उन्हें पता नहीं।

मंडी में फल पकाने का दूसरा तरीका नहीं है। अलग चैंबर बनाने की मांग पर भी मंडी समिति ने कुछ नहीं किया। इस बारे में समिति से पूछा तो उसने स्वास्थ्य विभाग और सरकार पर बात टाल दी। इस मामले में ठोस कार्रवाई नहीं करने के सवाल पर  फूड इंस्पेक्टर, सीएमएचओ और फूड सेफ्टी कमिश्नर कुछ भी स्पष्ट कहने बचते रहे।फूड इंस्पेक्टरों को कार्बाइड से फल पकाने की प्रक्रिया नजर नहीं आती, सीएमएचओ को भी इसी तरह की रिपोर्ट दी।

हकीकत :भास्कर ने मुहाना मंडी में देखा कि धड़ल्ले से फल पकाने में इसका उपयोग। फोटो भी जुटाए। व्यापारियों ने भी मजबूरी बताते हुए इसे स्वीकारा।कैल्शियम कार्बाइड से पके फलों की सैंपलिंग की व्यवस्था नहीं, लैब से प्रक्रिया जानी तो उन्होंने नहीं बताई। ऐसे में केस नहीं बना सकते।

हकीकत : फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड एक्ट 2006 के सेक्शन 58 में कार्बाइड पर सीधे कार्रवाई की जा सकती है। इसके लिए मौके से फल पकाने के काम लिए जा रहे कार्बाइड की बरामदगी शो कर कार्रवाई संभव है। जिसके तहत फर्द रिपोर्ट बनाकर गवाह बनाते हुए कोर्ट में इस्तगासा भी लगाया जा सकता है। इन्हीं फूड इंस्पेक्टर्स की ओर से गुटखे वाले मामले में इसी तरह कार्रवाई की जा चुकी है, जिसके लिए फूड सेफ्टी कमिश्नर ने ही आदेश जारी किए थे।
- रवि प्रकाश शर्मा, सीएमएचओ सैकंड

क्या करना था : फल पकाने का सर्वाधिक काम मुहाना मंडी में, जो सबसे बड़ी मंडी है। यह सीएमएचओ सैकंड के क्षेत्र में। अधीनस्थ फूड इंस्पेक्टर्स से कार्बाइड पर कार्रवाई करवाते। इंस्पेक्टर्स मौका देखने जाते हैं, लेकिन कार्रवाई नहीं होती।

क्या कहते हैं : फूड इंस्पेक्टर्स के मुहाना मंडी और दूसरी जगहों पर निरीक्षण के दौरान कैल्शियम कार्बाइड के उपयोग की बात सामने नहीं आई। इस मामले को गंभीरता से लेकर कार्रवाई कराएंगे।
- डॉ. बी.आर.मीणा, फूड सेफ्टी कमिश्नर

क्या करना था: फूड सेफ्टी एक्ट सहित स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से आए निर्देशों के तहत कार्रवाई सुनिश्चित कराते। कार्रवाई नहीं करने वालों पर कार्रवाई करते।
अब कहते हैं : (कई बार संपर्क करने और मैसेज करने के बावजूद उनका जवाब नहीं मिला।)

अब तो बील भी जहर बन जाएगा?
आम ही नहीं मरीजों के लिए सबसे मुफीद माने जाने वाले केला व पपीता भी इसी तरह पकाकर बेचे जाते हैं, जबकि कैंसर व अन्य घातक बीमारियों के इलाज से पहले व बाद में मरीजों को ऐसे फल नहीं खाने की सख्त मनाही है। हैरानी तो यह है कि अब तो आसानी से उपलभ्ब्ध अमृत फल बेल भी इस तरह बिक रहा है। कार्बाइड के कारण उस पर लाल रंग का निशान साफ नजर आ रहा है। ठेले वालों ने बताया कि मंडी से लाए बोरों में कार्बाइड की पुडिय़ा निकलती है।

फल पकाने के लिए (आम सहित) चैंबर बनाने सहित कई मांगे हमने मंडी समिति को लिखी हुई है, लेकिन इन पर कार्रवाई नहीं हो रही।
-गोविंद चेलानी, अध्यक्ष, जयपुर फल थोक विक्रेता संघ
 कार्रवाई और सैंपलिंग स्वास्थ्य विभाग का काम है। वे आते भी हैं, उन्हीं को ध्यान देना चाहिए। चैंबर बनाने के लिए स्टेट कमेटी अलॉटमेंट करती है, फिर हमारा काम शुरू होता है। -प्रमोद कुमार, सेक्रेट्री, मंडी समिति, मुहाना

स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से फूड सेफ्टी कमिश्नर्स को लिखा जा चुका है कि प्रिवेंशन ऑफ फूड अडल्ट्रेशन रूल्स, 1955 के नियम 44 एए के मुताबिक फलों को पकाने के लिए कार्बाइड का उपयोग गैर-कानूनी है। कैल्शियम कार्बाइड से फल पकाने में करना काफी खतरनाक है। इसमें कैंसर-कारी पदार्थ हैं। इसके अलावा त्वचा, किडनी, लीवर और पाचन तंत्र संबंधी बीमारियों को भी आमंत्रित करता है। वर्तमान में लागू फूड सेफ्टी एंड स्टैंडड्र्स एक्ट 2006 के मुताबिक भी यह बैन है।

बड़ा खुलासा: अमेरिका ने नहीं मारा था, खुद मरा था लादेन

वॉशिंगठन। दुनिया का नंबर वन आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मार गिराने का दावा भले ही अमेरिका करे, लेकिन नई जानकारी के अनुसार, इस आतं‍की को अमेरिकी सैनिकों ने नहीं बल्कि वह खुद अपनी मौत मरा था। ओसामा के पूर्व बॉडीगार्ड ने दावा किया है कि लादेन अमेरिकी नौसेना की विशेष इकाई सील की गोली से नहीं मरे थे। बल्कि उन्‍होंने खुद को बम से उड़ा लिया था। ओसामा के इस पूर्व बॉडीगार्ड के दावे पर कितनी सच्‍चाई है, यह बात या तो वह ही जानते हैं या फिर अमेरिका। 
 
पाकिस्तान के ऐबटाबाद में अमेरिकी सुरक्षा बलों की कार्रवाई में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की घटना के बारे में अक्‍सर नई खबरें आती रहती हैं। कुछ महीनों पहले खबर आई थी कि ओसामा को उसके कमरे में नहीं, बल्कि उस वक्त गोली मारी गई थी, जब अपने शयनकक्ष से बाहर की ओर झांक रहा था तथा उसके बचाव के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी।
 
लादेन के पूर्व बॉडीगार्ड नबील नईम अब्‍दुल फतेह ने बताया कि जिस वक्‍त ओसामा की मौत हुई, उस वक्‍त वह व‍हां मौजूद नहीं था। लेकिन ओसामा के एक करीबी रिश्‍तेदार ने यह बात बताई। ओसामा के विरोधियों का मनाना है कि उसके समर्थक जानबूझ कर ऐसे प्रोपागंडा फैलाता है। पूर्व बॉडीगार्ड के दावे में कोई भी सच्‍चाई नहीं है। ओसामा बिन लादेन की हत्‍या पाकिस्‍तान में 2 मई 2011 को हुई थी। 
 
कुछ दिनों पहले अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पनेटा भी कह चुके कि ओसामा बिन लादेन को मार गिराने का अभियान ‘किल ओसामा’ बहुत ही जोखिम भरा था। पाकिस्तान के एबटाबाद में अलकायदा आतंकी लादेन मिल ही जाएगा, यह पक्का नहीं था। सीआईए के निदेशक के तौर पर पनेटा ने ओसामा का पता लगाने और उसे मार गिराने के अभियान में अहम भूमिका निभाई थी। इसके बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें रक्षामंत्री बना दिया था। पनेटा ने रक्षामंत्री के तौर पर अपने अंतिम संवाददाता सम्मेलन में कहा था, ‘मैंने जो देखा.. वह बहुत पेशेवर खुफिया अभियान था। उसमें एबटाबाद में ओसामा के ठिकाने का पता लगाया जा सका।’ पनेटा ने कहा कि ‘ओसामा एबटाबाद में है यह सौ फीसदी निश्चित नहीं था इसलिए बीच में कई बार हम नर्वस हुए। अंत में विश्वास की जीत हुई।’
 
अब्‍दुल फतेह का कहना है कि अमेरिकी राष्‍ट्रपति का यह दावा एकदम गलत है कि लादेन को समुद्र की गहराईयों में दफनाया गया है। बम ब्‍लॉस्‍ट के कारण लादेन का शरीर टुकड़ों में कट गया था। लादेन के इस वफादर पूर्व बॉडीगार्ड का कहना है कि उसने कसम खाई है कि वो कभी भी ओसामा के राज को जगजाहिर नहीं करेगा। उसे मौत कबूल है लेकिन वह किसी के शिकंजे में नहीं आएगा। 
 
अब्‍दुल ने बताया कि लादेन पिछले दस सालों ने बमों से लैसे बेल्‍ट पहनता था। वह कभी भी किसी के शिकंजे में आना नहीं चाहता था। लेकिन वर्ष 2011 की रात उसने खुद को ही उड़ा लिया। अब्‍दुल के दावों पर कितनी सच्‍चाई है, यह भी संदेह के घेरे में है। क्‍योंकि लादेन की मौत को लेकर कई प्रकार की खबरें आती रही हैं। अब्‍दुल का दावा भी इन्‍हीं खबरों की अगली कड़ी साबित हो सकता है। 
 
ओसामा बिन लादेन के बॉडीगार्ड के रूप में काम कर चुका नबील नईम अब्‍दुल फतेह वर्ष 1988 से लेकर 1992 तक मिस्‍त्र से इस्‍लामिक जिहाद का लीडर था। 57 साल का फतेह ने कभी भी यह नहीं बताया कि वह कब लादेन का पर्सनल गार्ड बना। मिस्त्र के नेता होस्‍नी मुबारक ने उसे बीस साल के लिए कैद में भेज दिया था लेकिन मार्च 2011 में मुबारक के जाने के बाद वह रिहा हो गया। 

नक्सली नरसंहार के पल-पल की खबर राजनाथ को दे रहे थे रमन सिंह

'नक्सली नरसंहार के पल-पल की खबर राजनाथ को दे रहे थे रमन सिंह
रायपुर। मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने छत्तीसगढ़ सरकार पर कांग्रेसी नेताओं के नरसंहार की साजिश में शामिल होने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा है कि सीएम रमन सिंह बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को नक्सली हमले के पल-पल की अपडेट दे रहे थे
वहीं बस्तर के दरभा घाटी में कांग्रेस नेताओं की हत्या के बाद अब नक्सलियों ने मुख्यमंत्री रमन सिंह के साथ ही अन्य नेताओं-अफसरों को धमकाया है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने घटना की जिम्मेदारी लेते हुए इस आशय की एक विज्ञप्ति जारी की है।
सीपीआई माओवादी दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी ने विज्ञप्ति में कहा है कि दंडकारण्य के क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ खड़े हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह, गृहमंत्री ननकी राम कंवर, मंत्री रामविचार नेताम, केदार कश्यप, विक्रम उसेंडी, राज्यपाल शेखर दत्त, महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटिल, छत्तीसगढ़ के डीजीपी रामनिवास और एडीजी मुकेश गुप्ता जैसे पुलिस के आला अधिकारी इस गफलत में हैं कि कोई उनका बाल बांका भी नहीं कर सकता। महेंद्र कर्मा ने भी यही भ्रम पाल रखा था कि जेड प्लस सिक्योरिटी और बुलेट प्रूफ गाडिय़ां उसे हमेशा बचाएंगी। हिटलर और मुसोलिनी भी इसी घमंड में थे। हमारे देश में इंदिरा गांधी और राजीव जैसे फासीवादी भी इसी गलतफहमी के शिकार थे, लेकिन जनता अपराजेय है।
इसके अलावा विज्ञप्ति में दंडकारण्य से सभी अर्धसैनिक बलों को हटाने की मांग की गई है। साथ ही ऑपरेशन ग्रीन हंट बंद करने, प्रशिक्षण के नाम पर सेना की तैनाती रोकने तथा वायुसेना का हस्तक्षेप बंद कने की भी माग की गई है। (
दूसरी ओर, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली, पार्टी के राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री सौदान सिंह और प्रदेश प्रभारी जेपी नड्डा बुधवार सुबह रायपुर पहुंचे। उन्होंने नक्सली हिंसा में मारे गए अध्यक्ष नंद कुमार पटेल के गांव नंदेली जाकर परिजनों से मुलाकात की

कुरान का सन्देश

  
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