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17 अगस्त 2013

दो विधायकों में जमकर हुई नोंक-झोंक, तीखे तेवर के बीच बात हाथापाई तक पहुंची



कोटा। छबड़ा ((बारां)) के कांग्रेस विधायक करणसिंह राठौड़ और पार्टी के प्रदेश महासचिव पंकज मेहता शनिवार दोपहर सर्किट हाउस में उलझ पड़े। दोनों के बीच जमकर गाली-गलौच हुई। तीखे तेवर के बीच दोनों के बीच हाथापाई की नौबत तक आ गई। बाद में कांग्रेसियों ने दोनों को अलग-अलग किया।
घटना उस समय हुई, जब कांग्रेस चुनाव घोषणा समिति के संभागीय संयोजक पूर्व मंत्री हरिमोहन शर्मा सर्किट हाउस के दूसरे कमरे में कांग्रेस पदाधिकारियों से सुझाव लेने में व्यस्त थे। विदित रहे, कोटा के ये दोनों नेता समकालीन हैं और एनएसयूआई और युवक कांग्रेस की पृष्ठभूमि के रहे हैं।

सर्किट हाउस में चुनाव घोषणा पत्र समिति के संयोजक शर्मा को सुझाव देने के लिए विधायक, कांग्रेस के जिलाध्यक्ष, पीसीसी पदाधिकारी, ब्लॉक अध्यक्ष व कांग्रेस के पदाधिकारी पहुंचे थे। संयोजक शर्मा तो एक कमरे में लोगों से सुझाव ले रहे थे।
उसी समय पीसीसी महासचिव पंकज मेहता, विधायक सीएल प्रेमी, पूर्व पार्षद सुरेश गुर्जर, आबिद कागजी, मनोज दुबे, अनूप ठाकुर हॉल में बैठे थे। मेहता व प्रेमी कांग्रेस की रविवार को होने वाली बैठक में दावेदारों के पैनल को तैयार किए जाने के बारे में अनौपचारिक चर्चा कर रहे थे। उसी हॉल में विधायक करण सिंह भी मौजूद थे। इस बीच ही विधायक सिंह व मेहता के बीच सिस्टम को लेकर कहासुनी शुरू हो गई।
मेहता व सिंह जोर-जोर से बोलने लगे। दोनों के बीच बात बढ़ती चली गई, गर्मागर्मी हो गई। दोनों उलझ पड़े, गाली-गलौच हुई, हालात हाथापाई तक पहुंच गए। ऐसे में हॉल में बैठे पूर्व पार्षद सुरेश गुर्जर, अनूप ठाकुर ने बीच बचाव कर दोनों को दूर-दूर किया।

बापू ने नहीं बनने दिया था पटेल को पीएम, बहुमत के बावजूद लिया था नेहरू का पक्ष!



नई दिल्ली. गुजरात के मुख्यमंत्री और बीजेपी चुनाव प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष नरेंद्र दामोदार दास मोदी ने गुजरात के कच्छ इलाके के भुज शहर में अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण के दौरान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर आलोचना के कई तीर छोड़े। लेकिन इस दौरान गुजरात गौरव और 'लौह पुरुष' के नाम से मशहूर सरदार वल्लभ भाई पटेल का जिक्र कर मोदी ने कई दुखती रगों को छू लिया। 

मोदी ने कहा कि मनमोहन सिंह सरदार वल्लभ भाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री को भूल गए। क्या सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा 'स्टेचू ऑफ यूनिटी' बनवाने के लिए बड़ा अभियान जल्द ही शुरू करने जा रहे मोदी गलत हैं? क्या स्वतंत्रता दिवस जैसे अहम मौके पर जान बूझकर वल्लभ भाई पटेल को भुला दिया गया है? क्या पटेल के साथ आजादी के समय से ही नाइंसाफी नहीं हो रही है? 
1946 में ही तय होना था भारत का पहला प्रधानमंत्री 
 
टिप्पणीकार टीसीए श्रीनिवास राघवन के मुताबिक 1946 में कांग्रेस को देश के पहले प्रधानमंत्री का चुनाव करना था। लेकिन उससे पहले कांग्रेस के अध्यक्ष का चुनाव होना था। उस समय यह लगभग तय था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही देश का अगला प्रधानमंत्री बनेगा। तब कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव 1940 से भारत छोड़ो आंदोलन और दूसरे विश्व युद्ध के चलते छह सालों तक नहीं हो पाया था। 
 
इस माहौल में कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव शुरू हुआ। रेस में तीन नाम थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू। कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख 29 अप्रैल, 1946 थी। लेकिन 20 अप्रैल को ही गांधी जी ने आज़ाद के मुकाबले नेहरू को तरजीह देने का संकेत दे दिया था।   
15 कांग्रेस  समितियों में से 12 थीं पटेल के हक में, नेहरू के पक्ष में कोई नहीं 
 
नेहरू को लेकर गांधी जी की पसंद के बावजूद 15 प्रदेश कांग्रेस समितियों में से 12 ने सरदार पटेल का नाम आगे बढ़ाया। अन्य तीन समितियों ने भी नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया। लेकिन गांधी जी अपनी जिद पर अड़े थे। उन्होंने जेबी कृपलानी से नेहरू के पक्ष में माहौल बनाने के लिए कहा। इसके बाद कुछ लोगों के हस्ताक्षर जुटाए गए। हालांकि कांग्रेस का अध्यक्ष चुनने में इन लोगों की कोई भूमिका नहीं थी। यह अधिकार सिर्फ 15 प्रदेश कांग्रेस प्रमुखों के पास था।
गांधी के 'वीटो' के चलते कटा था पटेल का पत्ता
 
गांधी के कहने पर कृपलानी ने नेहरू को कांग्रेस का अगला अध्यक्ष बनाए जाने के लिए कुछ नेताओं के हस्ताक्षर जुटाए। टिप्पणीकार टीसीए श्रीनिवास राघवन के मुताबिक कृपलानी की कोशिश से नेहरू के पक्ष में जुटे हस्ताक्षरों को गांधी जी की वजह से किसी ने चुनौती नहीं दी। इसके बाद गांधी जी के कहने पर सरदार पटेल ने अध्यक्ष पद के लिए अपना नामांकन वापस ले लिया।
गांधी जी के सामने नेहरू ने साध ली थी चुप्पी, नाराज हो गए थे राजेंद्र  
 
गांधी जी कहने पर जब पटेल ने 1946 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में अपना नामांकन वापस ले लिया तो गांधी जी ने यह बात नेहरू को बताई। लेकिन महात्मा गांधी की पूरी बात सुनने के बाद नेहरू ने सिर्फ चुप्पी से इसका जवाब दिया। नेहरू के लिए गांधी जी की इच्छा को देखते हुए कलाम ने भी अपने पैर पीछे खींच लिए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद इस पूरे मामले को लेकर बहुत नाराज हुए। वे इस बात से नाराज थे कि पटेल को जबर्दस्ती नामांकन वापस लेना पड़ा।
क्यों मान गए थे पटेल 
 
सरदार पटेल 15 में से 12 कांग्रेस प्रदेश समितियों के समर्थन के बावजूद पार्टी के अध्यक्ष पद के चुनाव से पीछे हट गए थे। टिप्पणीकार टीसीए श्रीनिवास राघवन के मुताबिक पटेल ने गांधी जी की इच्छा के सम्मान और जिन्ना के हिंदुस्तान को बांटने की कोशिशों का मुकाबला करते समय एकता बनाए रखने के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष पद की रेस से अपने हाथ खींच लिए थे। इसी वजह से वे देश के पहले प्रधानमंत्री पद की रेस से भी बाहर हो गए।
कलाम आजाद ने भी मानी थी चूक 
 
कांग्रेस के अध्यक्ष रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद ने माना था कि पटेल पर नेहरू को चुनने का गांधी का फैसला गलत था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में इस बारे में लिखा था। अबुल कलाम के निधन के बाद 1959 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा में उन्होंने लिखा, 'यह मेरी गलती थी कि मैंने सरदार पटेल का समर्थन नहीं किया। हम कई मुद्दों पर अलग राय रखते थे। लेकिन मुझे लगता है कि अगर मेरे बाद पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष बनते तो शायद कैबिनेट मिशन प्लान कामयाबी से लागू किया जाता। वे नेहरू की तरह जिन्ना को पूरे प्लान को बर्बाद करने का मौका देने जैसी गलती नहीं करते। मैं अपने को कभी माफ नहीं कर सकता। जब मैं सोचता हूं मैंने ये गलतियां नहीं की होतीं तो शायद बीते दस साल का इतिहास कुछ और होता।'
राजगोपालाचारी ने भी माना था, उनसे हुई है गलती 
 
कांग्रेस के अध्यक्ष रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद की तरह सी. राजगोपालाचारी ने भी लिखा, 'अगर नेहरू को विदेश मंत्री बनाया जाता और पटेल को प्रधानमंत्री तो बेशक अच्छा होता। मैं नेहरू को पटेल से ज्यादा समझदार समझने की गलती कर बैठा। पटेल को लेकर यह गलतफहमी बन गई थी कि वह मुस्लिमों के प्रति कठोर हैं। यह गलत सोच थी, लेकिन उस समय ऐसी ही पक्षपात पूर्ण बात पर जोर था।' राजगोपालाचारी पटेल से खफा रहते थे। उन्हें लगता था कि आज़ाद भारत के पहले राष्ट्रपति बनने का अवसर पटेल के चलते उन्हें नहीं मिला। बावजूद इसके राजगोपालाचारी ने पटेल को लेकर ऐसी बात लिखी थी।
नेहरू ने किया था देश की संप्रभुता से समझौता! 
 
भारत ने 1962 के चीन युद्ध के बाद अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए के यू-2 जासूसी विमानों को अपने यहां ईधन भरने की इजाजत दी थी। यह इजाजत तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चीनी क्षेत्रों को निशाना बनाने के मकसद से दी थी। राष्ट्रीय सुरक्षा अभिलेखागार (एनएसए) ने सीआईए से हासिल दस्तावेज के आधार पर तैयार 400 पेज की रिपोर्ट में यह जानकारी दी है। ये दस्तावेज कुछ समय पहले ही गोपनीय सूची से हटाए गए हैं। इन्हें सूचना की आजादी अधिनियम के तहत प्राप्त किया गया है। इनके अनुसार, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 11 नवंबर, 1962 को चीन के साथ लगे सीमावर्ती इलाकों में यू-2 मिशन के विमानों को उड़ान भरने की इजाजत दी थी। 
 
यहां गौर करने वाली बात यह है कि 2001 में अमेरिका पर हमले के बाद वहां के प्रशासन ने भारत से अपने जंगी विमानों में भारत में ईंधन भरने की इजाजत मांगी थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मामले में यह कहते हुए मदद करने से इनकार कर दिया था कि भारत के संप्रभु राष्ट्र है और वह ऐसी इजाजत नहीं दे सकता।   
 
क्या है रिपोर्ट में 
 
-इसमें 1954 से 1974 के बीच यू-2 के जासूसी कार्यों का ब्यौरा है। इसके मुताबिक, 3 जून 1963 को अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी और भारतीय राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन में सहमति बनी। 
 
-सहमति के अनुसार, ओडिशा के छारबातिया वायुसैनिक अड्डे का इस्तेमाल अमेरिका कर सकता था। छारबातिया द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से बंद था। उसे ठीक करने ज्यादा समय लग गया। 
 
-देर की वजह से अमेरिका ने थाईलैंड के ताखली अड्डे का इस्तेमाल किया। अभियान को डिटैचमेंट जी नाम दिया गया। ताखली से उड़ान भरने वाले अमेरिकी जासूसी विमानों से ही भारतीय सीमा पर चीन की गतिविधियों की जानकारी मिलती थी। 
 
-23 मई 1964 तक छारबातिया अड्डा उपयोग लायक नहीं हो सका था। इसके तीन दिन बाद नेहरू की मृत्यु हो गई। नेहरू की मृत्यु के बाद यह समझौता रद्द कर दिया गया। छारबातिया पहुंचे पायलट और विमान चले गए। 
 
-दिसंबर 1964 में जब भारत-चीन में फिर तनाव बढ़ा तो डिटैचमेंट जी ने छारबातिया से अभियान शुरू किया। तीन सफल उड़ानें भरी गईं। जुलाई 1967 में छारबातिया को पूरी तरह बंद कर दिया गया।

बम बनाने में माहिर 70 साल का आतंकी टुंडा गिरफ्तार, एक साल में किए थे 24 धमाके

नई दिल्ली। बम बनाने में माहिर आतंकी अब्दुल करीम टुंडा को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। करीब 20 साल से फरार टुंडा की उम्र 70 साल है। वह 1993 में मुंबई में हुए बम धमाकों समेत 40 हमलों में आरोपी है। इनमें से 21 केस तो सिर्फ दिल्ली के हैं। टुंडा को उत्तराखंड से लगी नेपाल सीमा से गिरफ्तार किया गया है।
टुंडा भारत की ओर से पाकिस्तान को भेजी 20 मोस्टवांटेड की सूची में शामिल था। इस लिस्ट में से यह पहली गिरफ्तारी है। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने उसे शुक्रवार को पकड़ा और शनिवार को कोर्ट में पेश कर दिया। अदालत ने उसे तीन दिन के रिमांड पर पुलिस को सौंप दिया है। अब्दुल करीम टुंडा को लश्कर आतंकी हाफिज सईद के साथ दाऊद इब्राहिम का भी करीबी माना जाता है। टुंडा 1993 के धमाकों के बाद बांग्लादेश भाग गया था। वहां से पाकिस्तान चला गया। ज्यादातर समय वह कराची और लाहौर में ही रहा। वहीं से साजिशों को अंजाम दिया। वर्ष 2010 में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान भी टुंडा ने धमाके की साजिश रची थी।
दिल्ली स्पेशल पुलिस कमिश्नर (स्पेशल सेल) एसएन श्रीवास्तव ने बताया कि टुंडा के पास से अब्दुल कुद्दूस के नाम का पाकिस्तानी पासपोर्ट भी मिला है। पासपोर्ट इसी साल 23 जनवरी को जारी हुआ है।
पहले मरने की अफवाह फैलाई गई 
2000 से 2005 के बीच माना जाता था कि टुंडा मर चुका है। उसके बारे में आतंकी संगठनों ने अफवाहें फैलाई कि बांग्लादेश में वह मारा गया। फिर खबर आई कि वह केन्या में गिरफ्तार हो गया है। 2005 में गिरफ्तारी के बाद लश्कर के आतंकी अब्दुल रजाक मसूद ने खुलासा किया था कि टुंडा जिंदा है। उसके दो बच्चे हैं।
गाजियाबाद का रहने वाला है 
टुंडा दिल्ली से महज 70 किमी दूर उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले के पिलखुवा का रहने वाला है। आतंकी बनने से पहले वह बढ़ई, कपड़े और रद्दी का काम कर चुका है। उसका छोटा भाई अब्दुल मलिक अब भी गाजियाबाद में ही रहता है।
आसपास की चीजों से बम बनाने में माहिर 
टुंडा बम बनाने में माहिर है। यूरिया, नाइट्रिक एसिड, पोटेशियम क्लोराइड, नाइट्रोबेंजीन और चीनी के इस्तेमाल से भी वह बम बना सकता है। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से भी उसकी करीबी रही है। उसके बाद वह अमोनियम नाइट्रेट और पोटेशियम क्लोरेट को मिलाकर बम तैयार करने लगा। एक दिन बम तैयार करते समय विस्फोट से उसका एक हाथ बेकार हो गया। इसके बाद लोग उसे टुंडा कहने लगे।

अफगानिस्तान से पृथ्वीराज चौहान की अस्थियां लेकर लौटा था शमशेर?


अफगानिस्तान से पृथ्वीराज चौहान की अस्थियां लेकर लौटा था शमशेर?
नई दिल्ली. कुछ घंटे पहले हमने अपनी आजादी की 67 वीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाई। इस मौके पर देश ने अपने महान सपूतों और वीरांगनाओं को याद किया। लेकिन क्या आपको मालूम है कि भारत पर अंग्रेजों के कब्जे से कई शताब्दियों पहले ही विदेशी आक्रमणकारियों ने हमारी जमीन को नापाक करने की कोशिश की थी? 
सबसे पहले 1001 ईस्वी में मध्य पूर्व एशियाई लुटेरे महमूद गजनवी ने भारत के बड़े हिस्से में लूटमार की शुरुआत की थी। उसने जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन भी कराए। गजनवी को भारत में ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा था। गजनवी ने ही सोमनाथ मंदिर को 'अपवित्र' किया था। गजनवी ने 17 बार भारत पर हमला किया था। गजनवी के जाने के करीब डेढ़ सौ साल बाद अफगानिस्तान के घोर के रहने वाले आक्रांता मोहम्मद गोरी ने हिंदुस्तान पर नजर टेढ़ी की थी। उसने भी इस्लाम के विस्तार के नाम पर भारत के पश्चिम उत्तर में अत्याचार और लूटमार की थी। लेकिन भारत के एक वीर सपूत ने उसके दांत खट्टे कर दिए थे और पहली जंग में उसे बुरी तरह हरा दिया था।
पृथ्वीराज चौहान ने किए थे गोरी के दांत खट्टे 
 
अफगानिस्तान के घोर के रहने वाले शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी को तब  हिंदुस्तान पर हमले की पहली कोशिश में कामयाबी मिली थी। उसने मुल्तान के मुस्लिम शासक को हराकर वहां कब्जा कर लिया था। लेकिन जब उसने गुजरात की ओर रुख किया तो उसे कायदरा में भीमदेव सोलंकी के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन गोरी ने यहीं हार नहीं मानी। उसने करीब 23 साल बाद 11911 में खैबर दर्रे को पार करते हुए भारत की ओर रुख किया था। उसने भठिंडा के किले पर कब्जा कर लिया। तब भठिंडा पृथ्वीराज चौहान की रियासत का हिस्सा था। गोरी ने बठिंडा के किले को काजी जियाउद्दीन को सौंपकर वापस जाने का फैसला किया था। लेकिन तभी उसे सूचना मिली कि पृथ्वीराज चौहान की सेना किले को दोबारा हासिल करने के लिए आ रही है। दोनों के बीच तराइन (आज के हरियाणा के थानेसर से 14 मील दूर) के मैदान में जंग हुई। जंग में गोरी को बुरी तरह से मात खानी पड़ी। गोरी को गिरफ्तार कर लिया गया। उसने माफी मांगते हुए आज़ाद किए जाने की मांग की। पृथ्वीराज के सलाहकार गोरी को छोड़ने के खिलाफ थे। लेकिन पृथ्वीराज ने दया दिखाते हुए गोरी को छोड़ दिया।
पृथ्वीराज की चूक पड़ी भारी 
 
मोहम्मद गोरी पर दया दिखाना पृथ्वीराज पर भारी पड़ा। उसने एक साल बाद 1192 ईस्वी में करीब 1 लाख 20 हजार दासों (मामलूक) की फौज खड़ी कर पृथ्वीराज के राज्य पर फिर हमला किया। तराइन के मैदान में हुई दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज को हार का मुंह देखना पड़ा। गोरी पृथ्वीराज को गिरफ्तार कर अपने साथ अफगानिस्तान के गजनी इलाके में ले गया। लौटने से पहले मोहम्मद गोरी ने दिल्ली के तख्त पर कुतुबउद्दीन एबक को बैठा दिया और उसे सुल्तान घोषित कर दिया। पृथ्वीराज की हार के बाद भारत के मुख्य हिस्से पर इस्लामिक शासन की शुरुआत हुई। कई मायने में यह ऐतिहासिक घटना थी।
पृथ्वीराज ने ले लिया था बदला! 
 
मोहम्मद गोरी के बारे में इतिहासकार कहते हैं कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के झेलम जिले में एक विद्रोह को कुचलने के दौरान उसकी हत्या कर दी गई थी। लेकिन पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंद्र बरदाई के काव्य पृथ्वीराज रासो के मुताबिक पृथ्वीराज ने मोहम्मद गोरी की हत्या कर अपनी हार का बदला ले लिया था। लेकिन इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं हैं। 
आज भी अफगानिस्तान में मौजूद है पृथ्वीराज की 'समाधि' 
 
अफगानिस्तान के गजनी शहर के बाहरी इलाके में आज भी पृथ्वीराज की समाधि मौजूद है। गोरी की मजार पाकिस्तान के पंजाब के झेलम जिले में है। कई इतिहासकार गोरी की मजार के गजनी शहर में होने का दावा करते हैं।
पृथ्वीराज की समाधि का अपमान कर रहे हैं अफगानी 
 
'आर्म्स एंड आर्मर: ट्रेडिशनल वेपंस ऑफ इंडिया' नाम की किताब लिखने वाले ई जयवंत पॉल के मुताबिक, अफगानिस्तान के गजनी शहर के बाहरी इलाके में मौजूद पृथ्वीराज की समाधि आज बहुत ही बुरी हालत में है। गोरी की मौत के 900 साल बाद भी अफगानिस्तानी और पाकिस्तानी उसे अपना 'हीरो' मानते हैं। ये लोग गोरी की मौत का बदला लेने के लिए अपना गुस्सा पृथ्वीराज की समाधि पर निकालते हैं। पॉल की किताब के मुताबिक पृथ्वीराज की मजार के ऊपर एक लंबी मोटी रस्सी लटकी हुई है। कंधे की ऊंचाई पर इस रस्सी में गांठ लगी हुई है। स्थानीय लोग रस्सी की गांठ को एक हाथ में पकड़कर मजार के बीचोबीच अपने पैर से ठोकर मारते हैं। 
पृथ्वीराज की मजार से मिट्टी लेकर लौटने का दावा 
 
एक भारतीय शमशेर सिंह राणा ने 2005 में यह दावा कर सनसनी फैला दी थी कि उसने अफगानिस्तान में मौजूद पृथ्वीराज की समाधि से मिट्टी लेकर लौटा है। राणा के मुताबिक उसने ऐसा कर भारत का सम्मान वापस लौटाया है।

कुरान का सन्देश

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