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03 नवंबर 2013

शास्त्रों के अनुसार भाईदूज का महत्व दीपोत्सव का समापन दिवस है भाईदूज





शास्त्रों के अनुसार भैयादूज अथवा यम द्वितीया को मृत्यु के देवता यमराज का पूजन किया जाता है। इस दिन बहनें भाई को अपने घर आमंत्रित कर अथवा सायं उनके घर जाकर उन्हें तिलक करती हैं और भोजन कराती हैं। ब्रजमंडल में इस दिन बहनें भाई के साथ यमुना स्नान करती हैं, जिसका विशेष महत्व बताया गया है। भाई के कल्याण और वृद्धि की इच्छा से बहने इस दिन कुछ अन्य मांगलिक विधान भी करती हैं।

यमुना तट पर भाई-बहन का समवेत भोजन कल्याणकारी माना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान यमराज अपनी बहन यमुना से मिलने जाते हैं। उन्हीं का अनुकरण करते हुए भारतीय भ्रातृ परम्परा अपनी बहनों से मिलती है और उनका यथेष्ट सम्मान पूजनादि कर उनसे आशीर्वाद रूप तिलक प्राप्त कर कृतकृत्य होती हैं।

बहनों को इस दिन नित्य कृत्य से निवृत्त हो अपने भाई के दीर्घ जीवन, कल्याण एवं उत्कर्ष हेतु तथा स्वयं के सौभाग्य के लिए अक्षत (चावल) कुंकुमादि से अष्टदल कमल बनाकर इस व्रत का संकल्प कर मृत्यु के देवता यमराज की विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। इसके पश्चात यमभगिनी यमुना, चित्रगुप्त और यमदूतों की पूजा करनी चाहिए। तदंतर भाई के तिलक लगाकर भोजन कराना चाहिए। इस विधि के संपन्न होने तक दोनों को व्रती रहना चाहिए।


दीपोत्सव का समापन दिवस है कार्तिक शुक्ल द्वितीय, जिसे भैयादूज कहा जाता है। इस पर्व के संबंध में पौराणिक कथा इस प्रकार मिलती है। सूर्य की संज्ञा से दो संतानें थीं- पुत्र यमराज तथा पुत्री यमुना। संज्ञा सूर्य का तेज सहन न कर पाने के कारण अपनी छायामूर्ति का निर्माण कर उसे ही अपने पुत्र-पुत्री को सौंपकर वहां से चली गई। छाया को यम और यमुना से किसी प्रकार का लगाव न था, किंतु यम और यमुना में बहुत प्रेम था।

यमुना अपने भाई यमराज के यहां प्रायः जाती और उनके सुख-दुख की बातें पूछा करती। यमुना यमराज को अपने घर पर आने के लिए कहती, किंतु व्यस्तता तथा दायित्व बोझ के कारण वे उसके घर न जा पाते थे।

एक बार कार्तिक शुक्ल द्वितीय को यमराज अपनी बहन यमुना के घर अचानक जा पहुंचे। बहन यमुना ने अपने सहोदर भाई को बड़ा आदर-सत्कार किया। विविध व्यंजन बनाकर उन्हें भोजन कराया तथा भाल पर तिलक लगाया। यमराज अपनी बहन से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने यमुना को विधिव भेंट समर्पित की। जब वे वहां से चलने लगे, तब उन्होंने यमुना से कोई भी मनोवांछित वर मांगने का अनुरोध किया।

यमुना ने उनके आग्रह को देखकर कहा- भैया! यदि आप मुझे वर देना ही चाहते हैं तो यही वर दीजिए कि आज के दिन प्रतिवर्ष आप मेरे यहां आया करेंगे और मेरा आतिथ्य स्वीकार किया करेंगे।

इसी प्रकार जो भाई अपनी बहन के घर जाकर उसका आतिथ्य स्वीकार करे तथा उसे भेंट दें, उसकी सब अभिलाषाएं आप पूर्ण किया करें एवं उसे आपका भय न हो। यमुना की प्रार्थना को यमराज ने स्वीकार कर लिया। तभी से बहन-भाई का यह त्योहार मनाया जाने लगा।

वस्तुतः इस त्योहार का मुख्य उद्देश्य है भाई-बहन के मध्य सौमनस्य और सद्भावना का पावन प्रवाह अनवरत प्रवाहित रखना तथा एक-दूसरे के प्रति निष्कपट प्रेम को प्रोत्साहित करना है। इस प्रकार 'दीपोत्सव-पर्व' का धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय महत्व अनुपम है।

"याद की परछाईयों में तुम मेरी पहचान करना

"याद की परछाईयों में तुम मेरी पहचान करना
मैं तुम्हारे स्नेह के अवशेष सा
नज़र आऊँगा तुम्हें
याद की परछाईयों को अब प्रमाणों की जरूरत है नहीं
पहचान लेना
सूर्य के संकेत कहते हैं कि अब वह ढल चली हैं
चीखती हैं मौन में
सपनो में आती हैं
यंत्र की भाषा समझते लोग
यंत्रणा यादों की क्या समझेंगे ?
भावना के संकेत भौतिक धरातल पर भयावह हो गए हैं
सुकुमार से कुछ लोग सुकरात से पूछेंगे कि
सिकंदर कौन था ?
एक सन्नाटा युगों से मौन था
यह सुना है
याद का भूगोल आंसू में समाया है
यह सुना है
याद के भूगोल में भूकंप आया है
और उस भूकंप में हिलता है सब कुछ
विश्व का विश्वास भी
अन्दर का समन्दर भी
शब्द भी ...संगीत भी ...सपने भी ...
यादें भी ...मुकद्दर भी ...
रश्में भी ...सियासत भी ...रियासत भी ...रिश्ते भी ...
और रिश्तों तक पहुँचते रस्ते भी
रिश्तों की परिक्षा की घड़ी में कांपने लगते हैं हम
और ऐसे में
याद की परछाईयों में तुम मेरी पहचान करना
मैं तुम्हारे स्नेह के अवशेष सा
नज़र आऊँगा तुम्हें." ---- राजीव चतुर्वेदी

दुआ कीजियेगा के मेरी वजह से किसी का दिल ना दुखे आमीन सुम्मा आमीन

किसी ने मुझसे कहा के फेसबुक पर अनेक बीमार लोग बैठते है मेने इन जनाब की इस राय के बारे में प्रमाण चाहे तो जनाब कहते है ..खुद ही खोल कर देख लो कुछ तो ऐसे बीमार है जो खुद को ईमानदार और सारे देश को बेईमान समझते है ..ऐसे ही एक साहब के बारे में उन्होंने खुलासा किया जो फेसबुक पर सारी  दुनिया को बेईमान बताकर खुद को ईमानदार बताने कि कोशिश कर रहे थे उनकी बेईमानई के क़िस्से चारो तरफ थे ....इन जनाब ने फिर कहा के जो सबसे ज़यादा हिन्दू भक्त या मुस्लिम भक्त होने कि बात करते है वोह सौदेबाज़ होते है ..इन जनाब ने एक साथी का फोटू निकाला और बताया के यह हिन्दू भक्त कहा कहा कॉम कि सौदेबाज़ी करके आया है इसी तरह से इन जनाब एक मुस्लिम भक्त का फोटू निकाला और आर एस एस कि गुलामी के प्रमाण्ति क़िस्से ब्यान किये ....एक पत्रकार जी कि पोल खोलते हुए इन जनाब ने बताया के देख लो यह जिस नेता के खिलाफ बात करते है इस नेता के दरवाज़े पर नाक रगड़ रहे है इनके मोबाइल पर रिसीव कोल में नहीं डायल कोल में इन नेताजी के ही अधिकतम नम्बर है .....................इन जनाब का कहना था के कुछ लोग ऐसे बीमार होते है जो उल जलूल कमेंट कर खुद को बढ़ा साबित करना चाहते है लेकिन जनाब यह मानसिक रोगी नहीं समझते के उनके अलफ़ाज़ उनके ख्यालात उनके खानदानी ..गेर खानदानी होने कि पोल खोलते है उनकी बदतमीज़ी उनकी अभद्रता उनके माता पिता कि परवरिश को शर्मिंदा करती है ....आरोप प्रत्यारोप लगाने वाले खुद गिरेहबान में नहीं झांकते खुद अंदर से क्या है महसूस नहीं करते बस दूसरों कि कमियां पूर्वाग्रह से गरस्त होकर निकालने लगते है ......यह जनाब मुझे फेसबुक मानसिक रोगियों के बारे में और कुछ बताते के मेने अपने कान बंद कर लिए मेने गुज़ारिश कि के प्लीज़ खत्म कीजिये जिसकी जेसे भावना उसके जेसे विचार उसकी जेसी लेखनी हमे क्या ......हम यूँ ग़ैबत किसी कि करे किसी कि क्यूँ बुराई करे ..इन जनाब ने कहा खेर कोई बात नहीं मत सुनो लेकिन ऐसे लोगों के लिए दुआ तो करो के इन मानसिक रोगियों कि आदत में खुदा सुधार करे ...मेने कहा के भाई यह दुनिया है यहाँ सब तरह के लोग है सबके अपने विचार है अपना स्टाइल है ..खुद को हीरोगिरी साबित करने का प्रयास है ....हाँ ऐसे सभी लोगों के लिए खुदा से दुआ है के खुदा सभी को सद्बुद्धि दे और सबसे पहले मेरे में जो भी कमिया है वोह दूर करे ...दोस्तों में भी कोनसा दूध का धुला हूँ में भी मानसिक रोगी ज़रूर हो सकता हूँ इसलिए मेरी जो कभी हो में जो भी लेखन बीमारी हो मानसिक सोच कि बिमारी हो खुदा उसे भी दूर करे ऐसी भी दुआ आप लोग करना और मेरे साथियों कि भी बिमारी दूर हो ..फेसबुक सोशल साइट नफरत फैलाने का मंच नहीं बने बस यहाँ प्यार प्यार प्यार ही प्यार हो ..मोहब्बत के क़िस्से हो ..अपनापन हो ..नयी सूचनाओं का आदान प्रदान हो ..बुराई के खिलाफ संघर्ष हो ...............राष्ट्रभक्ति हो .मज़हबों का सम्मान हो ..महिलाओं का सम्मान हो एक दूसरे कि पोस्टों पर प्यार भरे कमेंट हो या फिर तन्क़ीदी कमेंट हो तो सलाहियत भरे रचनात्मक कमेंट हो बस यही हमारी और आपकी खुदा से दुआ हो ...खुदा हमारी इस दुआ को क़ुबूल करे और सामाजिक लोगों के साथ साथ फेसबुक मानसिक रोगियों को खुदा हिदायत दे मार्गदर्शन दे .....................मुझे भी खुद हिदायत दे मार्गदर्शन दे दोस्तों हम दो लोगों कि बात में जो बाते उभरी है मेने समाज हित में इसे शेयर क्या है किसी का दिल दुखाना मेरा मक़सद नहीं फिर भी किसी का दिल दुखा हो किसी कि भावनाए आहत हुई हो तो में माफ़ी का तलबगार हूँ मुझे माफ़ कीजियेगा और मेरे हक़ में दुआ कीजियेगा के मेरी वजह से किसी का दिल ना दुखे   आमीन  सुम्मा आमीन

एक कड़वा सच

एक कड़वा सच
अगर मुझ में दया नहीं होती
अगर मुझ में करुणा नहीं होती
अगर मुझ में इन्साफ का जज़बा नहीं होता
अगर मुझ में राष्ट्रभक्ति नहीं होती
अगर मुझमे वास्तविक धर्मनिरपेक्षता नहीं होती
अगर मुझे में मेरे देश के लिए मर मिटने का जज़बा नहीं होता
अगर मुझ में सच नहीं होता
अगर मुझे में आज़ादी का जज़बा नहीं होता
अगर मुझे में तिरंगे का सम्मान नहीं होता
अगर मुझ में संविधान का सम्मान नहीं होता
अगर में बेईमान होता
तो ऐ मेरे दोस्त
आज में भी
तेरे तरह देश का प्रधानमंत्री ..मंत्री  या राष्ट्रपति होता ..............
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

क़ुरान का सन्देश

आज है मोहर्रम का पावन दिन


Muharram-Taziaमोहर्रम हिजरी संवत का प्रथम मास है। पैग़म्बर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत की याद में मोहर्रम मनाया जाता है. मोहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम, हुसैन के शोक में मनाये जाते हैं। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिज़रत किया था।



इस पावन पर्व के पीछे की कथा

सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल बने हजरत इमाम हुसैन (अ.ल.) ने तो जीत की परिभाषा ही बदल दी। कर्बला में जब वे सत्य के लिए लड़े तब सामने खड़े यजीद और उसके 40,000 सैनिक के मुकाबले ये लोग महज 123 (72 मर्द-औरतें व 51 बच्चे थे)। इतना ही नहीं, इमाम हुसैन (अ.ल.) के इस दल में तो एक छह माह का बच्चा भी शामिल था)।





सत्य पर, धर्म पर मर मिटने का इससे नायाब उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं और ढूँढ़ना कठिन है। इन्हें अपनी शहादत का पता था। ये जानते थे कि आज वह कुर्बान होकर भी बाजी जीत जाएँगे। युद्ध एकतरफा और लोमहर्षक था। यजीद की फौज ने बेरहमी से इन्हें कुचल डाला। अनैतिकता की हद तो यह थी कि शहीदों की लाशों को दफन तक न होने दिया।





इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन (अ.ल.) छह वर्ष की उम्र तक हजरत पैगंबर (स.) के साथ रहे तथा इस समय सीमा में इमाम हुसैन (अ.स.) को सदाचार सिखाने, ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने का उत्तरदायित्व स्वयं पैगंबर (स.) के ऊपर था।



हिन्दु मुस्लिम एकता की निशानी

कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जाग्रत हुई कि हमने इमाम हुसैन (अ.स.) की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है। इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरंतर भड़कती चली गई और अत्याचारी शासन को उखाड़ फेंकने की भावना प्रबल होती गई। समाज के अंदर एक नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमानजनक जीवन से सम्मानजनक मृत्यु श्रेष्ठ है।





कहते हैं कि इमाम हुसैन ने यजीद की अनैतिक नीतियों के विरोध में मदीना छोड़ा और मक्का गए। उन्होंने देखा कि ऐसा करने से यहाँ भी खून बहेगा तो उन्होंने भारत आने का भी मन बनाया लेकिन उन्हें घेर कर कर्बला लाया गया और यजीद के नापाक इरादों के प्रति सहमति व्यक्त करने के लिए कहा गया। लेकिन सत्य की राह पर चलने की इच्छा के कारण उनकी शहादत 10 मुहर्रम 61 हिजरी यानी 10 अक्टूबर 680 ईस्वी को हुई।





ऐसे में भारत के साथ कहीं न कहीं इमाम हुसैन की शहादत का संबंध है- दिल और दर्द के स्तर पर। यही कारण है कि भारत में बड़े पैमाने पर मुहर्रम मनाया जाता है। यह पर्व हिंदू-मुस्लिम एकता को एक ऊँचा स्तर प्रदान करता है। फिर उदारवादी शिया संप्रदाय के विचार धार्मिक सहिष्णुता की महान परंपरा की इस भारत भूमि के दिल के करीब भी हैं। ग्वालियर में जो पाँच हजार ताजिए निकाले जाते हैं उनमें से महज 25 ताजिए ही शिया लोगों के होते हैं बाकी हिंदुओं के होते हैं।

मोहर्रम : सच के लिए शहीद हो गए इमाम हुसैन


इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी वर्ष का पहला महीना है मोहर्रम। इसे इस्लामी इतिहास की सबसे दुखद घटना के लिए भी याद किया जाता है। इसी महीने में 61 हिजरी में यजीद नाम के एक आतताई ने इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम और उनके 72 अनुयाइयों का कत्ल कर दिया था। सिर्फ इसलिए क्योंकि इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम ने यजीद को खलीफा मानने से इनकार कर दिया था। इनकार इसलिए किया था, क्योंकि उनकी नजर में यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी, जबकि यजीद चाहता था कि वह खलीफा है, इसकी पुष्टि इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम करें। क्योंकि वह हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर काफी अच्छा प्रभाव है। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब की कर्मभूमि मदीना छोड़ देंगे, ताकि वहां का अम्नो-अमान कायम रहे। और निकल पड़े इराक स्थित कुफानगरी के लिए। वहां के लोगों ने उन्हें अपने यहां आने का पैगाम भेजा था। लेकिन कुफानगरी के रास्ते में करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। उनके पास खाना-पानी तक नहीं पहुंचने दिया। इस काफिले में औरतें और बच्चे भी शामिल थे। यजीद के फौजियों को उन पर भी रहम नहीं आया। सबको भूखे-प्यासे घेरे रखा। इस तरह से इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम पर उसने जबरदस्ती जंग थोप दी। इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम और उनके साथियों की तादाद सौ से भी कम थी, जबकि यजीद के फौजी हजारों में थे। फिर भी उन लोगों ने हार नहीं मानी और पूरी बहादुरी के साथ लड़े। उनकी बहादुरी से एकबारगी तो यजीद के फौजियों के दिल भी दहल गए। सबसे आखिर में लड़ते-लड़ते इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम ने सजदे में अपना सिर कटा दिया। इससे पहले अपने तमाम साथियों को अपनी आंखों से उन्होंने शहीद होते देखा। वह तारीख थी 10 मोहर्रम। उसके बाद इन सबके शव को तलवार की नोंक पर लेकर यजीद के फौजी दमिश्क आए, जो उस वक्त यजीद की राजधानी थी और वहां दहशत फैलाने के लिए उन शवों को पूरे शहर में घुमाया। इसी कुरबानी की याद में मोहर्रम मनाई जाती है। इसलिए भी मनाई जाती है, क्योंकि इससे हक की राह में कुरबान हो जाने का सबक मिलता है। ताकतवर से ताकतवर के सामने हक के लिए डटे रहने का जज्बा पैदा होता है। अंजाम की परवाह किये बिना सच पर कायम रहने की हिम्मत पैदा होती है। सबसे बड़ी बात तो यह कि इसके साथ ही यह पता चलता है कि हार-जीत, जीने-मरने से नहीं, बल्कि इस बात से तय होती है कि आप का रास्ता क्या था। आप किन उद्देश्यों के लिए लड़े, डटे रहे। करबला की जंग यही बताती है कि इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम हक के लिए शहीद हुए। सच्चई के लिए जान देने वाले हारते नहीं, हमेशा जीतते हैं। मिसाल कायम करते हैं। यही वजह है कि आज भी इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम को लोग याद करते हैं। लेकिन न कोई यजीद को याद करता है और न उसकी कौम को। भारत में तो इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम यह मुकाम है कि जब शादी कर के बहू पहली मरतबा घर आती है, तो सास उसे दुआ देती है कि गमें हुसैन के अलावा तुम्हें और कोई गम न हो। लोकशाही के लिए भी यह जंग मिसाल है, क्योंकि यजीद को विरासत में खलीफा का पद मिला था, जिसका विरोध इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम ने किया था। भारत में भी मोहर्रम को सच के लिए कुरबान हो जाने के जज्बे से मनाते हैं और इसे सिर्फ मुस्लिम नहीं मनाते, हिंदू भी मनाते हैं। दत्त और हुसैनी ब्रह्मण तो मोहर्रम में पूरे 10 दिन का शोक मनाते हैं।
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