नहीं हूँ मै बुद्ध
युद्ध सर्वग्राही सा
अति घातक
चल रहा लगातार
इंसानियत के खिलाफ
स्थान व समय बदलते रहते
कभी पड़ जाता है कुछ धीमा
और कभी हो जाता है तेज, बहुत तेज
मोरचे कई हैं इसके, कई हैं प्रकार
बदलता रहता है इसका आकार
सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग
पा न सके पार
कभी लंका, कभी कुरुक्षेत्र ,कभी योरोप तो कभी अफगानिस्तान में
कभी देव, कभी असुर, कभी हिटलर, तो कभी पकिस्तान से
परन्तु अजीब विडंवना है कि
युद्ध लड़ते हैं लोग सब
शान्ति के ही नाम पर
और सच्चाई यह है कि
किसी भी युद्ध व हिंसा के मूल में है
इंसान का नितांत निजी स्वार्थ
भले ही दें वो कोई भी कारण, आदर्श या विचारधारा
इंसानियत के दुश्मन
चाहते हैं पाना
दूसरों की कीमत पर दूसरों की हानि पर
इंसानियत के वास्ते
ढूंढना ही होगा और करना ही होगा न्यूट्रेलाइज़ इन्हें
परन्तु प्रश्न यह है कि इन्हें ढूंढें कैसे ?
और फिर इंसानियत के दुश्मन
कहाँ नहीं हैं
हिंसा व युद्ध
किसी नस्ल, रंग जाति व पंथ की
बपौती नहीं होती
देश व काल की सीमाओं से
सीमित नहीं होती
परन्तु ठहरिये
कहाँ हैं ये दुश्मन
कहीं ऐसा तो नहीं
कि जिसे हम ढूंढते हैं बह्मांड में
मिल जाए वो पिंड में
भस्मासुर छिपा हो हम सब ही में
इंसानियत का दुश्मन
यकीनन है
खुद अपने ही अन्दर का इंसान,
मुकाबला हमसे ही है हमारा
पक्ष व प्रतिपक्ष दोनों हैं
बराबर के सबल और सक्षम
मुकाबला बराबरी का है
हम में ही छिपा है
हम जैसा
शातिर इंसान
मुखौटे लगाता है मुखौटों के ऊपर
लबादे पहनाता है लबादों के ऊपर
बनाए है भेष नाना प्रकार
दिखाता है भाँति भांति के करतब
स्थापित करता ही रहता है नित नए
किस्म किस्म के भगवान
देता ही रहता है धोखा सब को
हर तरह से, हर तरफ़ से
और सच्चाई यह भी है
कि नहीं हैं हम
सर्वथा अनजान
सबको है उसका
कुछ - कुछ तो भान
और यह भी तो सही है
कि हम जानकार भी पहिचानना ही नहीं चाहते
पहिचान लेने पर
तो करना ही होगा उससे खुलकर युद्ध
अजीब है उलझन
खुद से ही कैसे लड़ा जाए युद्ध
कैसे अलग हो
खुद से खुद का ही वजूद
फिर अपनी कमजोरियों से है मेरा लगाव भी तो है
नहीं करना है दुर्गम रास्तों का सफ़र
ख़तरनाक यात्रा
दुस्सह पथ
नहीं जाना अपने कोजी राजमहल से बाहर
नहीं चाहिए मुझे
आत्म ज्ञान और विवेक
नहीं हूँ मैं बुद्ध.
- शेखर